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Tulsidas Ke Dohe तुलसीदास के दोहे जनमानस में बहुत प्रिय है तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस हिंदू धर्म के प्रमुख ग्रंथ में से एक है यह पुस्तक मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम का चरित्र पर आधारित है रामचरितमानस संस्कृत का रामायण का अनुवाद है पढ़ें तुलसीदास का जीवन परिचय
Tulsidas Ke Dohe तुलसीदास के दोहे अर्थ सहित

तुलसी मीठे बचन ते सुख उपजत चहुँ ओर ।
बसीकरन इक मंत्र है परिहरू बचन कठोर ॥
अर्थ:– तुलसीदास जी कहते हैं कि मीठे वचन बहुत ही अनमोल होते हैं मीठे वचन बोलने के बाद आपको सभी लिए खुशी महसूस होती है मीठे वचन एक तरह से वशीकरण की तरह होते हैं जिसको बोलने के बाद सभी लोग पसंद होते हैं अतः आपको कटु वचन छोड़कर हमेशा मीठे वचन ही बोलना चाहिए ।
मुखिया मुखु सो चाहिऐ खान पान कहुँ एक ।
पालइ पोषइ सकल अंग तुलसी सहित बिबेक ॥
अर्थ:– तुलसीदास जी कहते हैं मुखिया को मुख के समान होना चाहिए मुझे खाने में तो अकेला होता है लेकिन शरीर के सभी अंगो का पालन पोषण करता है मुखिया को भी इसी तरह होना चाहिए जो अपने विवेक से पूरे परिवार का कल्याण करना चाहिए ।

सचिव बैद गुरु तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस । राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास ।
अर्थ:– तुलसीदास जी कहते हैं कि मंत्री वैध और गुरु को भाई के कारण प्रिय वचन नहीं बोलना चाहिए क्योंकि से शीघ्र ही राज्य शरीर और धर्म का नाश हो जाता है इन तीनों को सिर्फ अपने हित के कारण ऐसा नहीं करना चाहिए।
आवत ही हरषै नहीं नैनन नहीं सनेह।
तुलसी तहां न जाइये कंचन बरसे मेह ॥
अर्थ:- तुलसीदास जी कहते हैं कि ऐसी जगह आपको कभी नहीं जाना चाहिए जहां पर आपको देखकर लोग खुश नहीं होते हैं उनकी आंखों में आपके लिए स्नेह नहीं होता ऐसी जगह चाहे मुद्राओं के बारिश ही क्यों ना हो आपको कभी नहीं जाना चाहिए ।
Tulsidas ke Dohe in Hindi तुलसीदास के दोहे इन हिंदी

तुलसी साथी विपत्ति के, विद्या विनय विवेक।
साहस सुकृति सुसत्यव्रत, राम भरोसे एक ॥
अर्थ:- तुलसीदास जी कहते हैं कि विपत्ति के समय आपके पास यह गुण ही आपके मित्र होते हैं आपका ज्ञान विनम्रता विवेक अच्छा या बुरा सोचने की छमता सहस अर्थात आत्मबल आपके अच्छे कर्म सत्य बोलने का और भगवान पर विश्वास यह सभी चीज ही आपके विपत्ति समय काम आते हैं।

तुलसी इस संसार में, भांति भांति के लोग ।
सबसे हस मिल बोलिए, नदी नाव संजोग ॥
अर्थ:– तुलसीदास जी कहते हैं कि इस संसार में भांति भांति व्यवहार के लोग पाए जाते हैं आपको सभी से हंसकर मिलना चाहिए ।
काम क्रोध मद लोभ की, जौ लौं मन में खान।
तौ लौं पण्डित मूरखौं, तुलसी एक समान ॥
अर्थ:– तुलसीदास जी कहते हैं कि एक विद्वान व्यक्ति यदि कामवासना से ग्रसित होता है अहंकारी होता है संसारी चीजों से उसे बहुत लगाव होता है तो वह व्यक्ति विद्वान नहीं एक मूर्ख होता है ।

सहज सुहृद गुर स्वामि सिख जो न करइ सिर मानी।
सो पछिताई अघाइ उर अवसि होई हित हानि ॥
अर्थ:-अपने परोपकारी गुरु और गुरु की शिक्षाओं को अस्वीकार करके जो उनका सम्मान नहीं करते हैं। समय बीतने के बाद, वह अपराध बोध से भर जाता है और उसे नुकसान होना निश्चित है।
tulsidas ke dohe arth sahit तुलसीदास के दोहे अर्थ सहित
‘तुलसी’ जे कीरति चहहिं, पर की कीरति खोइ।
तिनके मुंह मसि लागहैं, मिटिहि न मरिहै धोइ ॥
अर्थ:- तुलसीदास जी कहते हैं कि यदि आप दूसरों को नीचा दिखा कर की निंदा करके अपनी कीर्ति फैलाना चाहते हैं तो यह गलत है आपके मुंह में दिन ऐसी कालिख लगेगी जिसे धोया भी नहीं जा सकता ।

तुलसी तृण जलकूल कौ निर्बल निपट निकाज ।
कै राखै कै संग चलै बांह गहे की लाज ॥
अर्थ:– तुलसी दास जी कहते हैं कि नदी के किनारे उगने वाली घास इतनी कमजोर होती है कि उसका उपयोग नहीं हो पाता है, लेकिन डूबता हुआ व्यक्ति संकट में पड़े प्राणी को पकड़ने की कोशिश करता है। पकड़ लेता है, कमजोर घास भी उसे बचाने की पूरी कोशिश करती है। अंत में, वह उसकी रक्षा करती है या टूट जाती है और उसके साथ चलती है। सच्ची दोस्ती भी ऐसी होनी चाहिए संकट के समय साथ दे।
जे न मित्र दुख होहिं दुखारी । तिन्हहि विलोकत पातक भारी ॥
निज दुख गिरि सम रज करि जाना । मित्रक दुख रज मेरू समाना ॥
अर्थ:- तुलसीदास जी मित्रता के विषय में कहते हैं जो व्यक्ति अपने मित्र की दुख में दुखी नहीं होता ऐसे मतलबी व्यक्तियों को देखने से भी पाप लगता है सच्चे मित्र वही होते हैं जो अपने पहाड़ समान दुख को एक धूल कड़ के बराबर और मित्र के साधारण दुख को भी सुमेरु पर्वत के समान समझते हैं वही व्यक्ति सच्ची मित्रता के अधिकारी होते हैं ।
जिन्ह कें अति मति सहज न आई । ते सठ कत हठि करत मिताई ॥
कुपथ निवारि सुपंथ चलावा । गुन प्रगटै अबगुनन्हि दुरावा ॥
अर्थ:– तुलसीदास जी कहते हैं कि सच्चा मित्र अपने मित्र को हमेशा गलत मार्ग पर चलने से बचाता है सच्चा मित्र वही होता है जो अपने मित्र की हो गुणों को छुपाकर से गुणों की प्रशंसा करता है।
देत लेत मन संक न धरई । बल अनुमान सदा हित करई ॥
विपति काल कर सतगुन नेहा । श्रुति कह संत मित्र गुन एहा ॥
अर्थ:– गोस्वामी तुलसीदास जी सच्चे मित्र की बात करते हुए कहते हैं कि एक सच्चा मित्र वह होता है जिसके मन में कोई संदेह न हो कि वह आपको कुछ लेने दे, और संकट के समय भी अपने मित्र की अपनी सहज बुद्धि और शक्ति से हमेशा मदद करे।
तुलसीदास के दोहे रामचरितमानस
उमा राम सम हित जग माहीं । गुरु पितु मातु बंधु प्रभु नाहीं ॥
सुर नर मुनि सब कै यह रीती । स्वारथ लागि करहिं सब प्रीती ॥
अर्थ:– तुलसीदास जी ने सांसारिक संबंधों के बारे में एक बहुत ही गूढ़ बात कही है कि इस दुनिया में सभी रिश्तों में किसी न किसी रूप में स्वार्थ जरूर होता है बिना किसी स्वार्थ के केवल भगवान राम से ही संबंध हो सकते हैं।
आगें कह मृदु वचन बनाई। पाछे अनहित मन कुटिलाई ॥
जाकर चित अहिगत सम भाई।अस कुमित्र परिहरेहि भलाई ॥
अर्थ:– तुलसीदास जी कहते हैं कि ऐसे व्यक्ति जो आपके सामने बहुत ही मधुर बातें करते हैं और आपकी पीठ पीछे आपकी बुराई करते हैं ऐसे व्यक्ति एक सांप के समान होते हैं ऐसे लोगों का प्रत्यय कर देना चाहिए ।

धीरज, धर्म, मित्र अरु नारी।
आपद काल परखिए चारी ॥
अर्थ:- तुलसीदास जी कहते हैं धीरज धर्म मित्र और नारी की परीक्षा विपत्ति के समय पर ही होती है इन चारों की पारक आपत्ति काल नहीं होती है।
पर द्रोही पर दार रत पर धन पर अपबाद।
ते नर पाँवर पापमय देह धरें मनुजाद॥
अर्थ:– ऐसे व्यक्ति जो दूसरों से हमेशा झगड़ा करते हैं किसी की स्त्री और दूसरों के धन को प्राप्त करने की इच्छा रखते हैं दूसरों की हमेशा निंदा करते हैं ऐसे व्यक्तियों को राक्षसी समझना चाहिए ।
तात स्वर्ग अपवर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग ॥
अर्थ:– इस दोहे में गोस्वामी जी ने सत्संग अर्थात सकारात्मक व्यक्तियों के संग के महत्व का प्रतिपादन यह कहते हुए किया है कि-संसार के सभी सुखों को भी अगर किसी तराजू के एक पलड़े पर रख दिया जाए, तो भी उसके बनिस्पत सत्संग से मिलने वाले लाभ कहीं अधिक ही होंगे। साथियों सच में व्यक्ति के जीवन में रूपांतरण का सबसे अहम कारक सत्संग अर्थात अच्छे लोगों का साथ होना ही है। जैसे व्यक्तियों के संसर्ग में हम रहेंगे हमारा चित भी क्रमश: उसी ओर झुकने लगेगा । हम भी वैसे ही जो जाएंगे ।

कोउ नृप होउ हमहिं का हानि ।
चेरी छाडि अब होब की रानी ॥
अर्थ:- यह प्रसंग रामायण से लिया गया है मंथारा कैकई से कहते हैं चाहे कोई भी राजा हो मैं तो दासी की की दासी रहूंगी मुझे क्या फर्क पड़ता है मैं अभी भी दासी हूं तब भी दासी रहूंगी।
तुलसीदास के दोहे और अर्थ
काहु न कोउ सुख दुख कर दाता ।
निज कृत करम भोग सबु भ्राता ॥
अर्थ:-तुलसीदास जी कहते हैं कोई किसी को दुख नहीं देता है इस संसार में सभी अपने कर्मों का भोग भोंकते हैं
सेवक सुख चह मान भिखारी । व्यसनी धन सुभ गति विभिचारी ॥
लोभी जसु चह चार गुमानी। नभ दुहि दूधचहत ए प्रानी ॥
अर्थ:– तुलसीदास जी कहते हैं सेवक सुख चाहता है भिखारी में हमेशा सनम सम्मान चाहता लोबी व्यक्ति हमेशा यस चाहता अभिमानी व्यक्ति धर्म और मोक्ष चाहता है।

लखन कहेउ हॅसि सुनहु मुनि क्रोध पाप कर मूल ।
जेहि बस जन अनुचित करहिं चरहिं विस्व प्रतिकूल ॥
अर्थ:– तुलसीदास जी कहते हैं क्रोधी सभी पापों का मूल होता है क्रोध के कारण ही मनुष्य अनुचित कार्य करता है व्यक्ति को कभी भी क्रोध नहीं करना चाहिए।
सूर समर करनी करहि कहि न जनावहिं आपू ।
विद्यमान रन पाई रिपु कायर कथहिं प्रतापु ॥
अर्थ:– तुलसीदास जी कहते हैं जो वीर होते हैं वह युद्ध में अपनी वीरता का प्रदर्शन करते हैं जो कायर होते हैं वही अपनी महानता की डींगे हांकते हैं कथनी से करनी ज्यादा महत्वपूर्ण होती है।
जदपि मित्र प्रभु पितु गुरू गेहा । जाइअ बिनु बोलेहुॅ न संदेहा ॥
तदपि बिरोध मान जहं कोई।तहं गए कल्यान न होई ॥
अर्थ:- तुलसीदास जी कहते हैं मित्र प्रभु गुरु और पिता के यहां बिना किसी संकोच के और बिना बुलाए जाना चाहिए अगर आपका यहां विरोध होता है तुम ऐसी जगह नहीं जाना चाहिए क्योंकि यह कल्याणकारी नहीं होता है ।
goswami tulsidas ke dohe गोस्वामी तुलसीदास के दोहे

बंदउ गुरू पद पदुम परागा । सुरूचि सुवास सरस अनुरागा ॥
अमिय मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रूज परिवारू ॥
अर्थ:- तुलसीदास जी कहते हैं गुरु के चरणों की धूल के स्वर्ग समान होती है गुरु के चरणों की वंदना संजीवनी के समान इससे आपके जीवन के सभी समस्याएं दूर हो जाते हैं।
बिनु सतसंग विवेक न होई । राम कृपा बिनु सुलभ न सोई ॥
सत संगत मुद मंगल मूला । सोई फल सिधि सब साधन फूला॥
अर्थ:-तुलसीदास जी कहते हैं बिना अच्छी संगति से आपको विवेक की प्राप्ति नहीं होती है बिना राम के कृपा के सत्संग की प्राप्ति नहीं होती है संसार की सभी सिद्धियों के लिए सत्संगति अत्यंत आवश्यक है ।
सुख हरसहिं जड़ दुख विलखाहीं, दोउ सम धीर धरहिं मन माहीं।
धीरज धरहुं विवेक विचारी, छाड़ि सोच सकल हितकारी ॥
अर्थ:- तुलसीदास जी कहते हैं मूर्ख लो सुख के समय अत्यंत प्रसन्न हो जाते हैं दुख के समय उदास हो जाते हैं चाहे जैसा समय हमेशा विवेक से काम लेना चाहिए ।

तनु गुन धन महिमा धरम, तेहि बिनु जेहि अभियान।
तुलसी जिअत बिडंबना, परिनामहु गत जान ॥
अर्थ:-सुंदरता, सद्गुण, प्रतिष्ठा, धन, और धर्मभाव से रहित होकर । यदि कोई मनुष्य अपने घमंड में रहता है तो यह बहुत विडंबना है वह परमार्थ के अर्थ को नहीं जानता।
अन्य पढ़े
tulsidas ke dohe in hindi with meaning
राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरीं द्वार ।
तुलसी भीतर बाहेरहुँ जौं चाहसि उजिआर ।।
तुलसीदास जी कहते हैं कि यदि आप राम नाम रूबी मणिदीप मुंह में रख लेते हैं तो इससे आपके शरीर में भीतर और बाहर दोनों उजाला हो जाता है।
तुलसी नर का क्या बड़ा, समय बड़ा बलवान ।
लूटी गोपियाँ, वही अर्जुन वही बाण ।।
तुलसीदास जी के दोहे के माध्यम से कहते हैं कि मनुष्य महान नहीं होते हैं समय महान होता उदाहरण के तौर पर कहते हैं जब महान धनुर्धर अर्जुन का खराब समय आया तुम मामूली भीलो गोपियों को लूट लिया और अर्जुन कुछ नहीं कर पाए ।
लसी पावस के समय, धरी कोकिलन मौन ।
अब तो दादुर बोलिहं, हमें पूछिह कौन ।।
महान कवि तुलसीदास जी कहते हैं बारिश के मौसम में कोकिला चुप हो जाती है क्योंकि इस समय में मेंढक टर्राने लगते हैं उनकी आवाज का कोलाहल इतना तेज होता है कि कोयल की आवाज दब जाती है ।
तुलसी भरोसे राम के, निर्भय हो के सोए ।
अनहोनी होनी नही, होनी हो सो होए ।।
तुलसीदास जी कहते हैं इस संसार में आप भगवान राम के भरोसे निर्भय होकर सो सकते हैं कोई अनहोनी नहीं होने वाली अगर कुछ होना भी है वह तो होकर रहेगा व्यर्थ की चिंता करना बेकार
सरनागत कहुँ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि ।ते नर पावँर पापमय तिन्हहि बिलोकति हानि ।।
तुलसीदास जी कहते हैं शरणागत का त्याग नहीं करना चाहिए ऐसा करने वाले व्यक्ति पापी होते हैं उनका का दर्शन करना भी उचित नहीं है ।
sant tulsidas ke dohe in hindi with meaning
कर्म प्रधान विश्व रचि राखा।
जो जस करहि सो तस फल चाखा।।
तुलसीदास जी कहते हैं इस जगत में कर्म ही प्रधान है जो प्राणी जिस तरह की कर्म करता है उस प्राणी को उसी तरह का फल प्राप्त होता है प्राणी का जीवन करो पर ही आधारित होता है ।
चित्रकुट के घाट पर भइ सन्तन की भीड़।
चन्दन घिसे तिलक देत रघुबीर।।
चित्रकूट के घाट पर बहुत सारे संत एकत्रित हुए तुलसीदास जी चंदन घिस रहे हैं और प्रभु राम तिलक कर रहे हैं इसके पीछे भी एक कथा है।
बिना तेज के पुरुष की, अवशि अवज्ञा होय।
आगि बुझे ज्यों राखको, आपु छुवै सब कोय ॥
तुलसीदास जी कहते हैं कि जो पुरुष तेजहीन होते हैं उनकी बात को जल्दी कोई नहीं मानता यह ठीक उसी तरह राख के बुझ जाने के बाद उसे कोई हाथ लगाने को तैयार नहीं होता है ।
मो सम दीन न दीन हित तुम्ह समान रघुबीर।
अस बिचारि रघुबंस मनि हरहु बिषम भव भीर ॥
तुलसीदास जी कहते हे रघुवीर मेरे समान कोई दीन नहीं है आप के समान कोई दानी नहीं है इसलिए ही रघुवीर मुझे इस जीवन मरण के चक्कर से मुक्त करें
सो कुल धन्य उमा सुनु जगत पूज्य सुपुनीत ।
श्रीरघुबीर परायन जेहिं नर उपज बिनीत ।।
भगवान शंकर देवी उमा से कहते हैं हे उमा वह कुल बड़ा ही पवित्र है जिसमें प्रभु राम जैसे लोग जन्म लेते हैं ।
मसकहि करइ बिरंचि प्रभु अजहि मसक ते हीन ।
अस बिचारि तजि संसय रामहि भजहिं प्रबीन ॥
तुलसीदास जी कहते हैं प्रभु राम इतनी शक्ति है जब मच्छर जैसी आकृति वाले व्यक्ति को भी ब्रह्मा बना सकते हैं और ब्रह्मा को भी एक लघु आकृति वाला बना सकते हैं ऐसा विचार कर महान बुद्धिमान लोग भी अपने संदेह को त्याग कर प्रभु राम की भक्ति करते हैं ।
tulsidas ke dohe with meaning in hindi
सो तनु धरि हरि भजहिं न जे नर ।
होहिं बिषय रत मंद मंद तर ॥
काँच किरिच बदलें ते लेहीं ।
कर ते डारि परस मनि देहीं ॥
तुलसीदास जी कहते हैं जब प्रभु राम की भक्ति नहीं करता है जो बुरे विषयों में आसक्ति रखते हैं वह पारस मणि को छोड़कर साधारण कांच एकत्रित करते हैं ।
बचन बेष क्या जानिए, मनमलीन नर नारि।
सूपनखा मृग पूतना, दस मुख प्रमुख विचारि।।
तुलसीदास जी कहते हैं कि किसी स्त्री पुरुष को उसकी वाणी या कपड़ों के आधार पर उसके मन की बात नहीं जानी जा सकती है क्योंकि मन में मैंल रखकर सूप नखा मारीच पूतना और रावण के कपड़े भी सुंदर थे ।
जपहिं नामु जन आरत भारी ।
मिटहिं कुसंकट होहिं सुखारी ।।
राम भगत जग चारि प्रकारा ।
सुकृति चारिउ अनघ उदारा ।।
प्रभु का नाम जपने से ही सारे संकट दूर हो जाते हैं प्रभु राम के भक्त चार प्रकार के होते हैं अर्थाथ; आर्त; जिज्ञासु और ज्ञानी भक्त।
सकल कामना हीन जे, राम भगति रस लीन।
नाम सुप्रेम पियूष हृद, तिन्हहुँ किए मन मीन॥
प्रभु प्रभु राम के भक्त सभी कामनाओं को त्याग कर राम भक्ति के रस में लीन रहते हैं
वे प्रभु राम नाम के प्रेम सरोवर में एक मछली की तरह रहते हैं जो एक क्षण के लिए भी प्रभु से अलग नहीं रहना चाहते हैं।
जिन्ह हरि कथा सुनी नहि काना ।
श्रवण रंध्र अहि भवन समाना ।।
तुलसीदास जी कहते हैं जिन्होंने हरि कथा अपने कानों से नहीं सुनी है उनके कानों के छेद सर्प के बिल के समान है ।
sant tulsidas ke dohe
उदासीन नित रहिअ गोसांई। खल परिहरिअ स्वान की नाई।।
तुलसीदास जी कहते हैं कि दुष्ट प्रवृत्ति के व्यक्ति से सदा ही सावधान रहना चाहिए एक दुष्ट प्रवृत्ति के व्यक्ति को कुत्ते की तरह दूर से ही त्याग कर देना चाहिए ।
कुलिस कठोर निठुर सोई छाती ।
सुनि हरि चरित न जो हरसाती।।
तुलसीदास जी कहते हैं कि जब हरि का चरित्र सुनकर भी हर्षित नहीं होते हैं ऐसे व्यक्तियों का हृदय वज्र के समान कठोर है ।
प्रभु जानत सब बिनहि जनाएँ ।
कहहुॅ कवनि सिधि लोक रिझाए।।
तुलसीदास जी कहते हैं प्रभु सब कुछ बिना बताए ही जानते हैं ।
सगुनहि अगुनहि नहि कछु भेदा ।
गाबहि मुनि पुराण बुध भेदा ।।
अगुन अरूप अलख अज जोई।
भगत प्रेम बश सगुन सो होई ।।
तुलसीदास जी कहते हैं पुराण वेद ऐसा कहते हैं सगुण और निर्गुण भक्ति में कोई भी अंतर नहीं होता है निर्गुण भक्ति में जिसका कोई रूप नहीं है वह अलख है और वह अजन्मा है वही प्रेम के कारण व सगुण हो जाता है।
तपबल तें जग सुजई बिधाता।
तपबल बिश्णु भए परित्राता।।
तपबल शंभु करहि संघारा।
तप तें अगम न कछु संसारा।।
तुलसीदास जी कहते हैं तपस्या से कुछ प्राप्त होना असामान्य नहीं है। इसमें शंका या आश्चर्य करने की आवश्यकता नहीं है। ब्रह्मा ने तपस्या के बल से संसार की रचना करते हैं और विष्णु तप के बल से ही इस संसार का पालन-पोषण करते हैं। शिव तपस्या से ही संसार का नाश करते हैं। संसार में ऐसा कुछ भी नहीं है जो तपस्या से प्राप्त न हो सके।
goswami tulsidas ke dohe गोस्वामी तुलसीदास के दोहे
हरि ब्यापक सर्वत्र समाना।
प्रेम ते प्रगट होहिं मै जाना।।
देस काल दिशि बिदि सिहु मांही।
कहहुॅ सो कहाॅ जहाॅ प्रभु नाहीं।।
तुलसीदास जी कहते हैं प्रभु हर जगह सर्वत्र व्याप्त हैं और जब हम उन्हें प्रेम से बुलाते हैं तो है आ जाते हैं वह संसारे कण कण में व्याप्त है ऐसी कोई जगह नहीं है जहां पर प्रभु नहीं है।
करहिं जोग जोगी जेहि लागी।
कोहु मोहु ममता मदु त्यागी।।
व्यापकु ब्रह्मु अलखु अविनासी।
चिदानंदु निरगुन गुनरासी।।
तुलसीदास जी कहते हैं भगवान जिनके लिए योगी क्रोध, मोह और अहंकार को त्याग कर योग का अभ्यास करते हैं वे सर्वव्यापी, अविनाशी, अविनाशी ब्रह्म, चिदानंद, निर्गुण और गुणों की खान हैं।
मन समेत जेहि जान न वानी।तरकि न सकहिं सकल अनुमानी।।
महिमा निगमु नेति कहि कहई।
जो तिहुॅ काल एकरस रहई।।
तुलसीदास जी कहते हैं जिसे शब्दों में पूरे मन से वर्णित नहीं किया जा सकता जिसका कोई अनुमान लगाना असंभव है जिसकी महिमा वेदों में नेति के रूप में वर्णित है और जो सदा स्थिर है।
जे न मित्र दुख होहिं दुखारी।
तिन्हहि विलोकत पातक भारी।।
निज दुख गिरि सम रज करि जाना।मित्रक दुख रज मेरू समाना।।
तुलसीदास जी कहते हैं ऐसा मित्र जो दूसरे मित्र के कष्टों को देखकर दुखी नहीं होता उसे देखने से भी भारी पाप लगता है नीति यह कहती हैअपने पहाड़ समान दुख को धूल के बराबर और मित्र के साधारण धूल समान दुख को सुमेरू पर्वत के समान समझना चाहिए।
सत्रु मित्र सुख दुख जग माहीं।
माया कृत परमारथ नाहीं।।
तुलसीदास जी कहते हैं इस जगत में मित्र शत्रु सुख-दुख माया यह सब झूठे हैं यह सब मिथ्या है सच्चाई तो सिर्फ परमात्मा है।
तुलसीदास के दोहे और अर्थ
सुर नर मुनि सब कै यह रीती।
स्वारथ लागि करहिं सब प्रीती।।
तुलसीदास जी कहते हैं इस संसार में सभी लोग स्वार्थ के लिए ही प्रेम करते हैं देवता, आदमी, मुनि सबकी यही रीति है।
कठिन कुसंग कुपंथ कराला।
तिन्ह के वचन बाघ हरि ब्याला।।
गृह कारज नाना जंजाला।
ते अति दुर्गम सैल विसाला।।
तुलसीदास जी कहते हैं खराब संगति मे रहना बहुत गलत रास्ता है इन बदमाशों की बातें बाघ, शेर और सांप जैसी होती हैं। अतः हमें कुसंगति से बचकर रहना चाहिए घरेलू कामकाज की कई समस्याएं एक विशाल खड़ी पहाड़ की तरह होती हैं।
सुभ अरू असुभ सलिल सब बहई।
सुरसरि कोउ अपुनीत न कहई।।
समरथ कहुॅ नहि दोश् गोसाईं।
रवि पावक सुरसरि की नाई।।
तुलसीदास जी कहते हैं गंगा में सभी प्रकार के पवित्र और अशुद्ध जल प्रवाहित होते हैं, पर गंगाजी को कोई अशुद्ध नहीं कहता। सूर्य, अग्नि और गंगा की तरह समर्थ व्यक्ति को कोई दोष नहीं देता।
तुलसी देखि सुवेसु भूलहिं मूढ न चतुर नर।
सुंदर के किहि पेखु बचन सुधा सम असन अहि।।
तुलसीदास जी कहते हैं सुन्दर वस्त्र देखकर मूर्ख ही नहीं, बुद्धिमान भी धोखा खा जाते हैं।
मोर की वाणी अमृत के समान होती है पर वह आहार सर्प का आहार हैै ।
आगें कह मृदु वचन बनाई।
पाछे अनहित मन कुटिलाई।।
जाकर चित अहिगत सम भाई।
अस कुमित्र परिहरेहि भलाई।।
तुलसीदास जी कहते हैं जो मित्र तो आपके सामने मीठी-मीठी बातें करता है आपकी पीठ पीछे वह आपकी बुराई करता है ऐसे मित्र सर्प के समान होते हैं इनका त्याग कर देने में ही आपकी भलाई है ।
Tulsidas ke Dohe in Hindi तुलसीदास के दोहे इन हिंदी
झूठइ लेना झूठइ देना।
झूठइ भोजन झूठ चवेना।।
बोलहिं मधुर बचन जिमि मोरा।
खाइ महा अति हृदय कठोरा।।
दुष्टों से संबंध बनाना अच्छी बात नहीं होती है। जैसे मोर के बोल बड़े मीठे होते हैं। लेकिन उसका दिल इतना सख्त है कि बहुत ही जहरीले सांप को भी खा जाता है। इसी प्रकार जो ऊपर से मीठा बोलता है वह सबसे अधिक क्रूर होता है।
सन इब खल पर बंधन करई ।खाल कढ़ाइ बिपति सहि मरई।।
खल बिनु स्वारथ पर अपकारी।
अहि मूशक इब सुनु उरगारी।।
तुलसीदास जी कहते हैं कुछ लोग दूसरों को जूट की तरह बांधते हैं। जूट को बांधने के लिए वह उसे खाल तक खींच लेता है। वह कष्ट सहकर मरता है। दुष्ट बिना किसी स्वार्थ के सांप और चूहे की तरह बिना किसी कारण के दूसरों को नुकसान पहुँचाते हैं।
पर संपदा बिनासि नसाहीं।जिमि ससि हति हिम उपल बिलाहीं।।
दुश्ट उदय जग आरति हेतू।
जथा प्रसिद्ध अधम ग्रह केतू।।
तुलसीदास जी कहते हैं ओला जो फसल को नष्ट करता है अंत में स्वयं नष्ट हो जाता है उसी तक उसी तरह कुछ लोग दुष्ट व्यक्ति के होते हैं वह दूसरे का धन बर्बाद करके स्वयं नष्ट हो जाते हैं जिस तरह केतु ग्रह का उदय सिर्फ इस संसार को दुखने के लिए होता है।
जद्यपि जग दारून दुख नाना।
सब तें कठिन जाति अवमाना।।
तुलसीदास जी कहते हैं इस दुनिया में अनेक प्रकार के दुख है लेकिन अपमान होना इन सभी दुखों में सबसे बड़ा है।
काह न पावकु जारि सक का न समुद्र समाइ।
का न करै अवला प्रवल केहि जग कालु न खाइ।।
तुलसीदास जी कहते हैं ऐसी कौन सी वस्तु है जो आग से क्या नहीं जलाया जा सकता है ऐसी कौन सी वस्तु है जो समुद्र में समा नहीं सकती एक सक्षम महिला बहुत मजबूत होती है और वह कुछ भी करने में सक्षम होती है। संसार में कौन कौन ऐसा है जो मृत्यु द्वारा निगला नहीं जा सकता।
जहॅ लगि नाथ नेह अरू नाते।
पिय बिनु तियहि तरनिहु ते ताते।।
तनु धनु धामु धरनि पुर राजू।
पति विहीन सबु सोक समाजू।।
तुलसीदास जी कहते हैं पति के बिना लोगों का स्नेह और अपनापन स्त्री को सूर्य से भी अधिक गर्माहट देता है। शरीर, धन, घर, जमीन, शहर और राज्य, ये सब पति के बिना स्त्री के लिए दुख और दुख का कारण हैं।
मिलती-जुलती पोस्ट – मित्रता पर तुलसीदास के दोहे
रिपु तेजसी अकेल अपि लघु करि गनिअ न ताहु।
अजहुॅ देत दुख रवि ससिहि सिर अवसेशित राहु।।
तुलसीदास जी कहते हैं कि जिस तरह केवल राहु का सिर बच गया था लेकिन वह आज तक सूर्य और चंद्रमा को पीड़ित करता है और दुःख देता है। उसी तरह एक बुद्धिमान शत्रु को भी कभी कम नहीं आंकना चाहिए ।
भरद्वाज सुनु जाहि जब होइ विधाता वाम।
धूरि मेरूसम जनक जम ताहि ब्यालसम दाम।।
तुलसीदास जी कहते हैं कि जब परमात्मा जब परमात्मा हमसे रुष्ट हो जाते हैं तो उस व्यक्ति को धूल पर्वत के समान, पिता काल के समान और रस्सी सर्प के समान हो जाती है।
दुइ कि होइ एक समय भुआला।हॅसब ठइाइ फुलाउब गाला।।
दानि कहाउब अरू कृपनाई।होइ कि खेम कुसल रीताई।।
तुलसीदास जी कहते हैं एक ही समय में जोर से हंसना और क्रोध से गुराना संभव नहीं है। युद्ध में दानी, कंजूस और बहादुर होना और चोट भी न लगना कभी संभव नहीं है।
सत्य कहहिं कवि नारि सुभाउ।सब बिधि अगहु अगाध दुराउ।।
निज प्रतिबिंबु बरूकु गहि जाई।जानि न जाइ नारि गति भाई।।
तुलसीदास जी कहते हैं स्त्री का स्वभाव समझ से परे, अथाह और रहस्यमय होता है। कोई आपकी छाया पकड़ सकता है, लेकिन वह एक महिला की चाल नहीं जान सकता।
सासति करि पुनि करहि पसाउ।
नाथ प्रभुन्ह कर सहज सुभाउ।।
तुलसीदास जी कहते हैं कि अच्छे स्वामी का यह कर्तव्य होता है सेवक को दंड देने के बाद उस पर कृपा बनाए रखें।
Tulsidas ke Dohe in Hindi तुलसीदास के दोहे इन हिंदी
सुख संपति सुत सेन सहाई।
जय प्रताप बल बुद्धि बडाई।।
नित नूतन सब बाढत जाई।
जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई।।
तुलसीदास जी कहते हैं जिस तरह सुख, धन, संपत्ति, संतान, सेना, मददगार, विजय, प्रताप, बुद्धि, शक्ति और प्रशंसा जैसे जैसे नित्य बढते हैं, उसी तरह आदमी का लालच और लोभ भी बढ़ता रहता है।
जिन्ह कै लहहिं न रिपु रन पीढी।
नहि पावहिं परतिय मनु डीठी।।
मंगन लहहिं न जिन्ह कै नाहीं।
ते नरवर थोरे जग माहीं।।
तुलसीदास जी कहता है ऐसे उत्तम प्रकृति के लोग बहुत ही कम होते हैं जो वीर पुरुष रणक्षेत्र से कभी नहीं भागते, दूसरों की स्त्रियों पर कुदृष्टि कभी नहीं डालता और और याचक जिन के यहां यहां से कभी खाली हाथ ना लौटते ।
टेढ जानि सब बंदइ काहू।
वक्र्र चंद्रमहि ग्रसई न राहू।।
तुलसीदास जी कहते हैं टेढा जानकर लोग वंदना प्रार्थना करते हैं टेढे चन्द्रमा को राहु भी नहीं ग्रसता है।
सेवक सदन स्वामि आगमनु।
मंगल मूल अमंगल दमनू।।
तुलसीदास जी कहते हैं सेवक के घर स्वामी का आगमन मंगल करने वाला और अमंगलों का नाश करने वाला होता है।
कोउ नृप होउ हमहिं का हानि।
चेरी छाडि अब होब की रानी।।
मंथरा कैकई से कहती हैं कोई भी राजा हो जाए मुझे क्या हानि है मैं तो नौकरानी थी और नौकरानी ही रहूंगी।
रहा प्रथम अब ते दिन बीते।
समउ फिरें रिपु होहिं पिरीते।।
जब अपना समय विपरीत चल रहा है कभी-कभी मित्र भी शत्रु हो जाते हैं।
sant tulsidas ke dohe संत तुलसीदास के दोहे
अरि बस दैउ जियावत जाही ।
मरनु नीक तेहि जीवन चाही ।।
शत्रु के अधीन जिंदा रहना मृत्यु से भी बढ़कर होता है।
सूल कुलिस असि अंगवनिहारे।
ते रतिनाथ सुमन सर मारे।।
जो व्यक्ति त्रिशूल, बज्र और तलवार आदि की मार अपने अंगों पर सह लेते हैं वे भी कामदेव के पुष्प बाण से मारे जाते हैं।
भानु पीठि सेअइ उर आगी।
स्वामिहि सर्व भाव छल त्यागी।।
तुलसीदास जी कहते हैं स्वामी की सेवा छल और पाखंड को छोड़कर सभी भावनाओं, मन, वचन और कर्म से की जानी चाहिए।।
उमा संत कइ इहइ बड़ाई।
मंद करत जो करइ भलाई।।
तुलसीदास जी कहते हैं कि संत की यह विशेषता होती है वह अपनी अहित चाहने वालों का भी भला करता है।
ग्यान पंथ कृपान कै धारा ।परत खगेस होइ नहिं बारा।
जो निर्विघ्न पंथ निर्बहई।सो कैवल्य परम पद लहईं
तुलसीदास जी कहते हैं ज्ञान एक दो धारी तलवार की तरह क्योंकि ज्ञान के रास्ते पर चलना इतना आसान नहीं है। जो व्यक्ति इस बाधा को पार कर जाता है वह परम पद मोक्ष को प्राप्त करता है।
नहिं दरिद्र सम दुख जग माॅहीं।संत मिलन सम सुख जग नाहीं।
पर उपकार बचन मन काया।
संत सहज सुभाउ खगराया।
तुलसीदास जी कहते हैं दरिद्रता के समान कोई दूसरा दुख नहीं है और संत मिलने के समान कोई दूसरा सुख नहीं है। मन वचन से दूसरों की सहायता करना यह संतों का स्वभाव होता है।
tulsidas ke dohe in hindi ramcharitmanas
मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला।तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला।
काम वात कफ लोभ अपारा।क्रोध पित्त नित छाती जारा।।
अज्ञानता के समान कोई दूसरा रोग नहीं है काम वात और लोभ बढ़ा हुआ कफ है। क्रोध पित्त है जो हमेशा हृदय जलाता रहता है।
साधु अवग्या तुरत भवानी।
कर कल्यान अखिल कै हानी।।
तुलसीदास जी कहते हैं साधु संतों का अपमान करना उचित नहीं है ऐसा करने से आपकी समस्त भलाई का तुरंत नष्ट हो जाता है।
नाथ दैव कर कवन भरोसा।
सोषिअ सिंधु करिअ मन रोसा॥
कादर मन कहुँ एक अधारा।
दैव दैव आलसी पुकारा॥
लक्ष्मण जी प्रभु राम से कहते हैं हे नाथ देव का क्या भरोसा मन में क्रोध भरी और इस समुद्र को सुखा डालिया देवता तो कायर मन का आधार है। दैव तो सिर्फ आलसी पुकारा करते हैं।
सठ सन विनय कुटिल सन प्रीती।
सहज कृपन सन सुंदर नीती।।
तुलसीदास जी कहते हैं मूर्ख व्यक्ति से नम्रता का व्यवहार करना कुटिल व्यक्ति से प्रेम का व्यवहार करना और कंजूस व्यक्ति से उदारता का व्यवहार करना व्यर्थ है ।
जानें बिनु न होइ परतीती।बिनु परतीति होइ नहि प्रीती।
प्रीति बिना नहि भगति दृढ़ाई।
जिमि खगपति जल कै चिकनाई।
तुलसीदास जी कहते हैं कि किसी की प्रभुता को जाने बिना उस पर भरोसा नहीं किया जा सकता और विश्वास के अभाव में प्रेम नहीं होता, बिना प्रेम के भक्ति नहीं हो सकती।
सोहमस्मि इति बृति अखंडा।
दीप सिखा सोइ परम प्रचंडा।।
आतम अनुभव सुख सुप्रकासा।
तब भव मूल भेद भ्रमनासा।।
सोऽहमस्मि’ ( वह ब्रह्म मैं हूँ ) यह जो अखंड ( तैलधारावत् कभी न टूटने वाली ) वृत्ति है, वही ( उस ज्ञानदीपक की ) परम प्रचंड दीपशिखा ( लौ ) है। इस भांति जब आपको आत्म अनुभव होता है तब संसार के मूल भेद रूपी भ्रम का नाश हो जाता है
कहत कठिन समुझत कठिन साधत कठिन विवेक
होइ घुनाच्छर न्याय जौं पुनि प्रत्युह अनेक।
तुलसीदास जी कहते हैं सच्चा ज्ञान बहुत ही मुश्किल से मिलता है उसकी साधना करना बहुत कठिन होता है ज्ञान यदि संयोगवश भी हो जाए, तो भी उसके संरक्षण में अनेक बाधाएँ आती हैं।
ममता रत सन ग्यान कहानी।
अति लोभी सन विरति बखानी।।
क्रोधिहि सभ कर मिहि हरि कथा।
उसर बीज बए फल जथा।।
मोह माया में फंसे व्यक्ति से ज्ञान की बातें करना लोभी व्यक्ति से बैरागी की बातें करना क्रोधी से शान्ति की बातें करना और कामुक व्यक्ति से भक्ति की बातें करना व्यर्थ है इसका परिणाम वैसा ही होता जैसे कि उसर खेत में बीज बोने से होता है।
सेवक सेब्य भाव बिनु भव न तरिअ उरगारि।
भजहु राम पद पंकज अस सिद्धांत बिचारि॥
इस भावना के बिना कि मैं एक सेवक हूँ और भगवान मेरे सेब्य (मालिक) हैं कोई भी भव सागर पार नहीं कर सकता है।
पर उपदेश कुशल बहुतेरे।
जे आचरहिं ते नर न घनेरे।।
तुलसीदास जी कहते हैं दूसरों को शिक्षा देने में यह कुछ सिखाने लोग बहुत निपुण होते हैं। लेकिन उस आचरण का वह लोग स्वयं पालन नहीं करते
एक पिता के बिपुल कुमारा।
होहिं पृथक गुन सील अचारा।।
कोउ पंडिंत कोउ तापस ग्याता।
कोउ धनवंत सूर कोउ दाता।।
एक पिता के कई पुत्र होते हो सभी के आचरण और गुण भिन्न-भिन्न में होते हैं। कोई पंडित कोई तपस्वी कोई ज्ञानी कोई धनी कोई बीर और कोई दानी होता है।
कोउ सर्बग्य धर्मरत कोई। सब पर पितहि प्रीति सम होई॥
कोउ पितु भगत बचन मन कर्मा। सपनेहुँ जान न दूसर धर्मा॥
कोई सब जानने बाला धर्मपरायण होता है।पिता सब पर समान प्रेम करते हैं। पर कोई संतान मन वचन कर्म से पिता का भक्त होता है और सपने में भी वह अपना धर्म नहीं त्यागता।
सो सुत प्रिय पितु प्रान समाना।
जद्यपि सो सब भाॅति अपाना।।
वह पुत्र पिता को प्राणों से भी प्रिय है, यद्यपि वह सब प्रकार से मूर्ख है।
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