सूरदास के पद अर्थ सहित Surdas ke pad

Surdas ke Pad

Surdas ke Pad सूरदास एक नेत्रहीन कवि और भक्ति काल के प्रमुख संत थे । जिनकी भक्ति भरी कविताएं भगवान कृष्ण को समर्पित हैं।
यहां वर्णित “Surdas ke Pad” का संकलन उनकी रचना सूरसागर से लिया गया है।

सूरदास के पद Surdas ke Pad in Hindi

Surdas ke pad

1 . मुख दधि लेप किए

मुख दधि लेप किए

सोभित कर नवनीत लिए।
घुटुरुनि चलत रेनु तन मंडित मुख दधि लेप किए॥

चारु कपोल लोल लोचन गोरोचन तिलक दिए।
लट लटकनि मनु मत्त मधुप गन मादक मधुहिं पिए॥

कठुला कंठ वज्र केहरि नख राजत रुचिर हिए।
धन्य सूर एकौ पल इहिं सुख का सत कल्प जिए॥

भावार्थ – सूरदास जी भगवान के बाललीला का वर्णन करते हुए कहते है मुँह में दूध का लेप किये हुए है वह घुटने के बल चल रहे हैं उनके शरीर पर मिटटी लगी हुई है बालकृष्ण के हाथों में मक्खन लगा हुआ है गाल बहुत सुंदर हैं। बालकृष्ण की आंखें हिल रही हैं और हिल रही हैं और उनके माथे पर तिलक है।सूरदास जी कहते हैं कि यदि श्रीकृष्ण का बाल रूप एक क्षण के लिए भी देख लिया जाए तो जीवन  बन जाता है

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2 . प्रभू मोरे औजीगुन चित न धरौ

प्रभू!  मोरे औजीगुन चित न धरौ ।

सम दरसी है नाम तुम्हारौ , सोई पार करौ ॥
इक लोहा पूजा मैं राखत , इक घर बधिक परौ॥

सो दुबिधा पारस नहिं जानत, कंचन करत खरौ ॥
इक नदिया इक नार कहावत, मैलौ नीर भरौ ॥
जब मिलिगे तब एक बरन ह्वै, गंगा नाम परौ ॥
तन माया जिव ब्रह्म कहावत, सूर सु मिलि बिगरौ॥
कै इनकौ निर्धार कीजिये, कै प्रन जात टरौ ॥

भावार्थ – सूरदास जी भगवान प्रार्थना करते हुए कहते है आप मेरे अवगुडो को मत देखिए एक लोहे को मूर्ति के रूप में पूजा घर में रखा जाता है और दूसरे लोहे को जानवरों को मारने के हथियार के रूप में बूचड़खाने में रखा जाता है। पारस पवित्र और अपवित्र – पत्थर इन दो प्रकार के लोहे के बीच कोई भेद नहीं करता है, यह उन्हें स्पर्श से असली सोना बनाता है।

एक नदी है जिसमें शुद्ध जल बहता है। एक दूसरा नाला है, जिसमें गंदा जल बहता रहता है और दोनों (नदी और नाले) का पानी गंगा नदी में मिल जाता है और उसके पानी का रूप ले लेता है, इसलिए इसे ‘गंगाजल’ भी कहा जाता है।

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3 . कबहुं बढैगी चोटी

कबहुं बढैगी चोटी
मैया कबहुं बढैगी चोटी।

किती बेर मोहि दूध पियत भइ यह अजहूं है छोटी॥
तू जो कहति बल की बेनी ज्यों ह्वै है लांबी मोटी।
काढत गुहत न्हवावत जैहै नागिन-सी भुई लोटी॥
काचो दूध पियावति पचि पचि देति न माखन रोटी।
सूरदास त्रिभुवन मनमोहन हरि हलधर की जोटी॥

भावार्थ – इसमें सूरदास जी भगवान की बाल लीला का वर्णन करते है श्रीकृष्ण माँ से पूछते हैं कि मैं कब से कच्चा दूध नहीं पी रहा हूँ, मैं बहुत दिनों से दूध पी रहा हूँ, पर मेरी चोटी नहीं बढ़ रही है, माँ, बताओ मेरी चोटी कब बढ़ेगी, अब वह भी छोटी है

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सूरदास के पद

4 . मैया मैं नहिं माखन खायो

मैया! मैं नहिं माखन खायो।

ख्याल परै ये सखा सबै मिलि मेरैं मुख लपटायो॥

देखि तुही छींके पर भाजन ऊंचे धरि लटकायो।

हौं जु कहत नान्हें कर अपने मैं कैसें करि पायो॥

मुख दधि पोंछि बुद्धि इक कीन्हीं दोना पीठि दुरायो।

डारि सांटि मुसुकाइ जशोदा स्यामहिं कंठ लगायो॥

बाल बिनोद मोद मन मोह्यो भक्ति प्राप दिखायो।

सूरदास जसुमति को यह सुख सिव बिरंचि नहिं पायो॥

इसमें सूरदास जी भगवान की बाल लीला का वर्णन करते है हे मैया मैंने मक्खन नहीं खाया। सुबह-सुबह मैं गायों के बाद जंगल में जाता हूं,मैं अपनी बांसुरी लेकर घूमता हूं और रात को ही घर आता हूं।गाय चराने वाले ये सब लड़के मेरे शत्रु हैं, वे बलपूर्वक मेरे मुख पर मक्खन लगाते हैं।

तुम मन की बड़ी भोली हो माँ निश्चय ही तुम्हारे मन में मेरे प्रति कुछ शंका उत्पन्न हुई, तुम मुझे अजनबी समझने लगी हो । अपनी और कमरिया की यह लाठी ले लो, उन्होंने मुझे बहुत नाराज किया।

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5. हरि हैं राजनीति पढ़ि आए

हरि हैं राजनीति पढ़ि आए।
समुझी बात कहत मधुकर के, समाचार सब पाए।
इक अति चतुर हुते पहिलैं ही, अब गुरु ग्रंथ पढ़ाए।
बढ़ी बुद्धि जानी जो उनकी, जोग-सँदेस पठाए।
ऊधौ भले लोग आगे के, पर हित डोलत धाए।
अब अपनै मन फेर पाइहैं, चलत जु हुते चुराए।
ते क्यौं अनीति करैं आपुन, जे और अनीति छुड़ाए।
राज धरम तौ यहै ‘सूर’, जो प्रजा न जाहिं सताए।

भावार्थ – जब उद्धव जी ने गोपियों को श्री कृष्ण जी की अनुपस्थिति के बारे में बताया, तो गोपियों ने दुखी और सांत्वना दी और कहा कि श्री कृष्ण जी ने राजनीति पाठ पढ़ा, अब उनका भावनाओं से कोई लेना-देना नहीं है।श्री कृष्ण पहले से ही बुद्धिमान थे ऊपर से उन्होंने राजनीति पुस्तक भी पढ़ी। इस तरह श्री कृष्ण जी अब और अधिक बुद्धिमान हो गए हैं।

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सूरदास के पद अर्थ सहित

6. ऊधौ, तुम हौ अति बड़भागी

ऊधौ, तुम हौ अति बड़भागी।
अपरस रहत सनेह तगा तैं, नाहिन मन अनुरागी।
पुरइनि पात रहत जल भीतर, ता रस देह न दागी।
ज्यौं जल माहँ तेल की गागरि, बूँद न ताकौं लागी।
प्रीति-नदी मैं पाउँ न बोरयौ, दृष्टि न रूप परागी।
‘सूरदास’ अबला हम भोरी, गुर चाँटी ज्यौं पागी।

भावार्थ – गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि तुम बहुत भाग्यशाली हो, तुम भाग्यशाली हो क्योंकि तुम प्रेम के बंधन से दूर हो। तुम प्रेम के बंधन से मुक्त हो। जिस प्रकार कमल के पत्ते जल में रहकर भी जल के ऊपर रहते हैं, उसी प्रकार जल में कोई दोष नहीं है।

आपने अभी तक प्रेम की नदी में पैर नहीं रखा है। तेरी दृष्टि किसी में उलझी नहीं है,किसी से प्रेम स्थापित नहीं हुआ है। लेकिन हम निर्दोष हैं, हम लकड़ी के टुकड़े और लाठी पर उड़ने वाली मक्खी की तरह हैं।

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7. हमारैं हरि हारिल की लकरी

हमारैं हरि हारिल की लकरी।
मन क्रम बचन नंद-नंदन उर, यह दृढ़ करि पकरी।
जागत सोवत स्वप्न दिवस-निसि, कान्ह-कान्ह जक री।
सुनत जोग लागत है ऐसौ, ज्यौं करुई ककरी।
सु तौ ब्याधि हमकौ लै आए, देखी सुनी न करी।
यह तौ ‘सूर’ तिनहिं लै सौंपौ, जिनके मन चकरी।

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8. ऊधौ कर्मन की गति न्यारी

ऊधौ, कर्मन की गति न्यारी।
सब नदियाँ जल भरि-भरि रहियाँ सागर केहि बिध खारी॥
उज्ज्वल पंख दिये बगुला को कोयल केहि गुन कारी॥
सुन्दर नयन मृगा को दीन्हे बन-बन फिरत उजारी॥
मूरख-मूरख राजे कीन्हे पंडित फिरत भिखारी॥
सूर श्याम मिलने की आसा छिन-छिन बीतत भारी॥

कर्म और भाग्य का यह खेल बहुत न्यारी है। समुद्र नदियों के ताजे पानी से भरा है। हालांकि इसका पानी खारा रहता है। विधि ने बेकार बगुले को सफेद और चमकदार पंख दिए।

जबकि गुणी कोयल को काला बनाया । उन्होंने मरुभूमि में विचरण करने वाले हिरण को सुन्दर नेत्र दिये अर्थात् उसका कोई विशेष उपयोग नहीं होता। मूर्ख लोगों को राजा बना दिया गया और बुद्धिमान लोग गरीब बने रहे।

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9 . चरन कमल बंदौ हरिराई

चरन कमल बंदौ हरिराई ।
जाकी कृपा पंगु गिरि लंघे,अंधे को सब कछु दरसाई ॥
बहरो सुने मूक पुनि बोले,रंक चले सिर छत्र धराई ।
सूरदास स्वामी करुणामय, बारबार बंदौ तिहिं पाई ॥

सूरदास जी कहते हैं मैं भगवान श्रीहरि के चरण कमलों की पूजा करता हूं भगवान श्रीकृष्णा की कृपा से एक लकवाग्रस्त व्यक्ति भी एक पर्वत को चढ़ जाता है। भगवान श्रीकृष्णा की कृपा से अंधे भी देखने लगते हैं,भगवान श्रीकृष्णा की कृपा से बहरे भी सुनने लगते हैं और गूंगे भी बोलने लगते हैं।

भगवान श्रीकृष्णा की कृपा से निर्धन  राजा के समान हो जाता है। सूरदास जी कहते हैं: मैं उस दयालु भगवान श्री हरि के चरणों की बार-बार पूजा करता हूं।

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10 . जसोदा तेरो भलो हियो है माई

जसोदा तेरो भलो हियो है माई।
कमलनयन माखन के कारन बांधे ऊखल लाई॥
जो संपदा दैव मुनि दुर्लभ सपनेहुं द न दिखाई।
याही तें तू गरब भुलानी घर बैठें निधि पाई॥
सुत काहू कौ रोवत देखति दौरि लेति हिय लाई।
अब अपने घर के लरिका पै इती कहा जड़ताई॥
बारंबार सजल लोचन ह्वै चितवत कुंवर कन्हाई।
कहा करौं बलि जां छोरती तेरी सौंह दिवाई॥
जो मूरति जल-थल में व्यापक निगम न खोजत पाई।
सो महरि अपने आंगन में दै-दै चुटकि नचाई॥
सुर पालक सब असुर संहारक त्रिभुवन जाहि डराई।
सूरदास प्रभु की यह लीला निगम नेति नित गाई॥

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11 . रे मन, गोबिंद के है रहियै

रे मन, गोबिंद के है रहियै।
इहिं संसार अपार बिरत है, जम की त्रास न सहियै।
दुःख, सुख, कीरति, भाग आपनैं आइ परै सो गहियै।
सूरदास भगवंत-भजन करि अंत बार कछु लहियै।।

भावार्थ – सूरदास जी कहते हैं हे मन सदा गोविन्द अर्थात भगवान श्री कृष्णा में लगा कर रखना चाहिए । अपने आप को इस नश्वर दुनिया के मोह से मुक्त करें, ताकि आपको नर्क की पीड़ा न झेलनी पड़े। आपको जो कुछ भी मिले, खुशी, प्रसिद्धि आदि को खुशी से स्वीकार करना चाहिए। सूरदास जी कहते हैं कि जीवन के अंतिम क्षण में ईश्वर की आराधना करके इस संसार से छुटकारा पाने का प्रयास करना चाहिए।

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12 . मो सम कौन कुटिल खल कामी

मो सम कौन कुटिल खल कामी।
जेहिं तनु दियौ ताहिं बिसरायौ, ऐसौ नोनहरामी॥
भरि भरि उदर विषय कों धावौं, जैसे सूकर ग्रामी।
हरिजन छांड़ि हरी-विमुखन की निसदिन करत गुलामी॥
पापी कौन बड़ो है मोतें, सब पतितन में नामी।
सूर, पतित कों ठौर कहां है, सुनिए श्रीपति स्वामी॥

अर्थ- इस पद में सूरदास जी कहते हैं मेरे समान दूसरा कोई पापी कुटिल दुष्ट नहीं है मैं ऐसा नमक हराम ही व्यक्ति हूं जिसने उसी को भुला दिया है जिसने हमें यह शरीर दिया है मैं उस सूअर के समान सज्जन व्यक्तियों की संगति छोड़कर दुष्ट व्यक्ति की की ओर भाग रहा हूं सूरदास जी कहते हैं मुझसे बड़ा पापी कौन होगा मेरे पापों को नष्ट करने और अपने चरणों में आश्रय दें

13 . जोग ठगौरी ब्रज न बिकैहै

जोग ठगौरी ब्रज न बिकैहै।
यह ब्योपार तिहारो ऊधौ, ऐसोई फिरि जैहै॥
यह जापे लाये हौ मधुकर, ताके उर न समैहै।
दाख छांडि कैं कटुक निबौरी को अपने मुख खैहै॥
मूरी के पातन के कैना को मुकताहल दैहै।
सूरदास, प्रभु गुनहिं छांड़िकै को निरगुन निरबैहै॥

भावार्थ – गोपिया कहती है हे उद्धव आप कि मोहोने वाले ठग विद्या ब्रज में नहीं चलेगी आप जो सौदा लाया वह हमें पसंद नहीं आया हे उद्धव आप ही बताना मीठे गुरु को खाने वाला नीम की निबोरी कौन खाएगा सूरदास जी कहते हैं कि ससगुण, साकार ईश्वर को छोड़कर निराकार ईश्वर को कौन चुनेगा

14 . मेरो मन अनत कहाँ सुख पावै

मेरो मन अनत कहाँ सुख पावै।
जैसे उड़ि जहाज को पंछी, फिरि जहाज पै आवै॥
कमल-नैन को छाँड़ि महातम, और देव को ध्यावै।
परम गंग को छाँड़ि पियासो, दुरमति कूप खनावै॥
जिहिं मधुकर अंबुज-रस चाख्यो, क्यों करील-फल भावै।
सूरदास प्रभु कामधेनु तजि, छेरी कौन दुहावै॥

अर्थ- सूरदास जी कहते हैं कि मेरे मन को कहीं और किसी की पूजा करने से सुख नहीं मिलता। जैसे अनंत समुद्र में एक जहाज पर रहने वाला एक पक्षी घूमता है और जहाज पर ही लौट आता है। आत्मा ईश्वर का अंश है। उसका विश्राम स्थान केवल ईश्वर है, उसे सच्चा सुख और शांति कहीं और नहीं मिल सकती। कमलनयन भगवान कृष्ण को छोड़कर मन किसी और देवता का ध्यान नहीं करता है।

जैसे मूर्ख गंगाजी के पवित्र जल को छोड़कर कुआं खोदता है। वह मायाजाल जिसने कमल के रस का स्वाद चखा है। वह करेले का रस कहाँ पसंद करेगा? कामधेनु गाय उपलब्ध होने पर बकरी का दूध दुहेगा

15 . सुदामा गृह कौं गमन कियौ

सुदामा गृह कौं गमन कियौ ।
प्रगट बिप्र कौं कछु न जनायौ, मन मैं बहुत दियौ ॥
वेई चीर कुचील वहै बिधि, मोकौं कहा भयौ ।
धरिहौं कहा जाय तिय आगैं, भरि भरि लेत हियौ ॥
सो संतोष मानि मन हीं मन, आदर बहुत लियौ ।
सूरदास कीन्हे करनी बिनु, को पतियाइ बियौ ॥

अर्थ- सुदामा कृष्ण जी से मिल कर अपने घर को वापस जाते हैं। भगवान ने सुदामा को सामने कुछ भी भी नहीं दिया लेकिन  उसके मन को  बहुत कुछ दिया। सुदामा जी सोचते है मेरे पास वही कपड़े, खाना और वही किस्मत है मैं अपनी पत्नी को क्या दिखाऊंगा  जिसे पाकर मेरी पत्नी प्रसन्न हो। सुदामा जी सोचते है मन में एक ही संतोष है कि उन्होंने बहुत सम्मान दिया। यह सत्य है कि कर्म के बिना कुछ भी प्राप्त नहीं होता है।

16 . जसुमति दौरि लिये हरि कनियां

जसुमति दौरि लिये हरि कनियां।
“आजु गयौ मेरौ गाय चरावन, हौं बलि जाउं निछनियां॥
मो कारन कचू आन्यौ नाहीं बन फल तोरि नन्हैया।
तुमहिं मिलैं मैं अति सुख पायौ,मेरे कुंवर कन्हैया॥
कछुक खाहु जो भावै मोहन.’ दैरी माखन रोटी।
सूरदास, प्रभु जीवहु जुग-जुग हरि-हलधर की जोटी॥

व्याख्या- सूरदासजी कहते हैं कि माता यशोदा को दौड़ कर पकड़ लेती है क्यों श्री कृष्ण जी पहली बार गाय चराने गए थे  माता यशोदा उनसे कहती रही हैं कि आज पहली बार कान्हा गाय चराने गए हैं। इसलिए मैं उनपर बलिहारी जाऊ हूं।

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माता यशोदा कहती है हे कन्हैया की वहाँ से तुम मेरे लिए कुछ वन फल और फूल नहीं लाए। इतने देर  बाद तुम्हे देख कर मुझे  बहुत खुशी हो रही है मेरे लल्ला । तुम जो कुछ भी खाना चाहते हैं मुझे बताओ। तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि मैया, मुझे माखन की रोटी खाने को दे दो। सूरदास जी कहते हैं कि कृष्ण-बलराम की यह जोड़ी साथ रहती थी।

17 . संदेसो दैवकी सों कहियौ

संदेसो दैवकी सों कहियौ।
`हौं तौ धाय तिहारे सुत की, मया करति नित रहियौ॥
जदपि टेव जानति तुम उनकी, तऊ मोहिं कहि आवे।
प्रातहिं उठत तुम्हारे कान्हहिं माखन-रोटी भावै॥
तेल उबटनों अरु तातो जल देखत हीं भजि जाते।
जोइ-जोइ मांगत सोइ-सोइ देती, क्रम-क्रम करिकैं न्हाते॥
सूर, पथिक सुनि, मोहिं रैनि-दिन बढ्यौ रहत उर सोच।
मेरो अलक लडैतो मोहन ह्वै है करत संकोच॥

अर्थ- सूरदास इस पद में विरह का वर्डन करते है जब कृष्ण के मथुरा चले जाते है तो बाद माता यशोदा देवकी को संदेश भेजती हैं कि मैं तुम्हारे पुत्र की दाई हूं। आप मुझ पर अपनी कृपा सदा बनाये रखना। हालाँकि आप उनके बारे में (कृष्ण के) सब कुछ जानती हैं फिर भी मैं अपनी तरफ से बोल रही हूँ।

आपका कान्हा सुबह उठते ही माखन रोटी खाना पसंद करते हैं। वे तेल, कूड़ाकरकट और शीतल जल देखकर भाग जाते हैं। वह बहुत लालच और कृपा के बाद ही स्नान करता है। मेरे प्यारे मोहन उस घर को विदेशी समझकर बहुत झिझक रहे होंगे। इस बात का मुझे दिन-रात दुख होता है।

18 . निरगुन कौन देश कौ बासी

निरगुन कौन देश कौ बासी।
मधुकर, कहि समुझाइ, सौंह दै बूझति सांच न हांसी॥
को है जनक, जननि को कहियत, कौन नारि को दासी।
कैसो बरन, भेष है कैसो, केहि रस में अभिलाषी॥
पावैगो पुनि कियो आपुनो जो रे कहैगो गांसी।
सुनत मौन ह्वै रह्यौ ठगो-सौ सूर सबै मति नासी॥

व्याख्या– गोपियाँ उद्धव से कहती है हे उद्धव आप जिस निर्गुण ब्रह्म की बात कर रहे हैं। वह किस देश से है हम वास्तव में पूछ रहे हैं। यह कोई मजाक नहीं है।  वह उद्धव से पूछती हैं, “अच्छा है, लेकिन उससे पहले हम आपके उस निर्गुण का कुछ परिचय चाहते हैं।

वह किस देश का है, उसके पिता का नाम क्या है, कौन है उसकी माँ, चाहे कोई उसकी पत्नी हो, उसका रंग गोरा हो या सांवला, वह किस देश में रहता है, उसे क्या पसंद है, यह सब बताओ। तब हम उस निर्गुण की तुलना अपने श्यामसुंदर से कर पाएंगे और बता पाएंगे कि क्या वह है प्यारा है या नहीं। गोपियों की यह बात सुनकर उद्धव चुप हो गए उनकी सारी बुद्धि नष्ट हो गई।

Surdas ke Pad in Hindi

19.

मुखहिं बजावत बेनु
धनि यह बृंदावन की रेनु ।
नंदकिसोर चरावत गैयां मुखहिं बजावत बेनु ॥
मनमोहन को ध्यान धरै जिय अति सुख पावत चैन ।
चलत कहां मन बस पुरातन जहां कछु लेन न देनु ॥
इहां रहहु जहं जूठन पावहु ब्रज बासिनि के ऐनु।
सूरदास ह्यां की सरवरि नहिं कल्पबृच्छ सुरधेनु ॥

सूरदास जी कहते हैं ब्रजभूमि धन्य है जा प्रभु कृष्ण अपनी गायों को चलाते हैं मुख से बांसुरी बजाते हैं यह ब्रजभूमि पवित्र भूमि है जहां प्रभु का स्मरण करता है मन को शांति मिल जाती है सूरदास जी पर मन से प्रश्न करते हुए कहते हैं मन तू इधर उधर क्यों भटकता रहता है ब्रज में प्रभु के चरणों में ही रहे परम शांति की प्राप्ति होगी।

Surdas ke Pad वात्सल्य रस से परिपूर्ण होते हैं वात्सल्य भावना को सूरदास के पदों में बहुत ही सुंदरता से व्यक्त किया गया है। सूरदास के पद हमें वात्सल्य रस की गहराई को समझने में मदद करते हैं।

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