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गुरु के दोहे अर्थ सहित नमस्कार दोस्तों आज इस पोस्ट में हम पढ़ेंगे गुरु की महिमा पर लिखे गए दोहो के बारे में गुरु का स्थान हमारे जीवन बहुत ही उच्च होता है चलिए पढ़ते हैं महान लोगों ने गुरु पर दोहे में क्या क्या कहा
गुरु के दोहे अर्थ सहित
जब मैं था तब गुरु नहीं, अब गुरु है मैं नाहिं।
प्रेम गली अति सांकरी, तामें दो न समांही।।
कबीरदास जी कहते हैं कि जब मेरे मन के अंदर अहंकार था उस समय मुझे गुरु नहीं मिले कबीरदास जी कहते हैं प्रेम की गली अपनी सकरी होती है इसमें गुरु और अहंकार दोनों एक साथ नहीं आ सकते।
गुरु शरणगति छाडि के, करै भरोसा और।
सुख संपती को कह चली, नहीं नरक में ठौर।।
जो व्यक्ति गुरु की शरण को त्याग कर किसी और के ऊपर भरोसा करता है उसे सुख संपत्ति और नरक में भी उसे ठिकाना नहीं मिलता है।
गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, गढि गढि काढैं खोट।
अंतर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट।।
कबीरदास जी कहते हैं कि गुरु एक कुम्हार के समान है और शिष्य एक घड़े के समान है।
जैसी प्रीती कुटुम्ब की, तैसी गुरु सों होय।
कहैं कबीर ता दास का, पला न पकड़े कोय।
जिस तरह आप अपने परिवार से प्रेम करते हैं उसी तरह आप गुरु से प्यार करें ऐसे गुरु भक्तों को माया रूपी बंधन नहीं बांध सकती है।
गुरु सों ज्ञान जु लीजिए, सीस दीजिए दान।
बहुतक भोंदु बहि गये, राखि जीव अभिमान।।
गुरु की शरण में जाकर उसे ज्ञान लेना चाहिए चाहे इसके लिए आपको सिर काट कर उसके चरणों में ही कर दे।
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गुरु पर दोहे
गुरु गोविन्द दोऊ एक हैं, दुजा सब आकार।
आपा मैटैं हरि भजैं, तब पावैं दीदार।।
गुरु गोविंद दोनों एक है दोनों में सिर्फ नाम क अंतर है अपने अंदर को अहंकार मिटाकर ईश्वर का ध्यान करना चाहिए तभी आप कुछ के दर्शन होंगे ।
गुरु गोविन्द दोऊ खड़े , काके लागू पाय।
बलिहारी गुरु आपने , गोविन्द दियो बताय।।
कबीर दास जी गुरु की महिमा का वर्णन करते हुए कहते हैं कि अगर आपके सामने गुरु और इस पर दोनों एक साथ आ जाए तो आपको पहले किसके प्रणाम करना चाहिए हमारे गुरु ने हमें ईश्वर के दर्शन करा है इसलिए गुरु का स्थान बड़ा है ।
कबीरा ते नर अँध है, गुरु को कहते और।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर ।।
कबीर दास जी कहते हैं कि वे नर अंधे हैं जो गुरु को ईश्वर से अलग समझते हैं ईश्वर के रूट जाने पर आपको गुरु के यहां स्थान है लेकिन गुरु के रूठने पर आपको ईश्वर के पाकिस्तान नहीं है ।
सब धरती कागज करूँ, लेखनी सब बनराय।
सात समुंदर की मसि करूँ, गुरु गुण लिखा न जाय
कबीर दास जी कहते हैं कि यदि सारी पृथ्वी कागज बन जाए, सारे जंगल की लकड़ी कलम हो जाए, और सात समुद्रों का जल स्याही हो जाए, तो भी गुरु की महिमा का वर्णन करना संभव नहीं है।
गुरु पारस को अन्तरो, जानत हैं सब संत।
वह लोहा कंचन करे, ये करि लेय महंत।।
गुरु और पारस के भेद को ज्ञानी भली-भांति जानते हैं। जिस प्रकार पारस का स्पर्श लोहे को सोना बना देता है, उसी प्रकार गुरु की निरंतर उपस्थिति शिष्य को अपने गुरु के समान महान बना देती है।
गुरु किया है देह का, सतगुरु चीन्हा नाहिं।
भवसागर के जाल में, फिर फिर गोता खाहि।।
कबीरदास जी कहते हैं हमें कभी भी बाहरी आडंबर देकर गुरु को नहीं बनाना चाहिए हमें गुरु के अंदर ज्ञान को देखना चाहिए ताकि वह आपको संसार रूपी भंवर सागर से पार लगा सके
गुरु को सिर राखिये, चलिये आज्ञा माहिं
कहैं कबीर ता दास को, तीन लोकों भय नाहिं
कबीरदास जी कहते हैं गुरु का मान रखना चाहिए अगर आप गुरु का मान रखते हो तो इस तीनो लोक में आपका कहीं भी मान नहीं होगा ।
कुमति कीच चेला भरा, गुरु ज्ञान जल होय।
जनम – जनम का मोरचा, पल में डारे धोय।।
कबीरदास जी कहते हैं कि गुरु एक ज्ञान रूपी जल के समान है जो अपने शिष्य के अज्ञान कीचड़ को धो डालता है गुरु अपने शिष्य के जन्म जन्मांतर बुराइयों को एक पल में धो देता है
या दुनिया दो रोज की, मत कर यासो हेत।
गुरु चरनन चित लाइये, जो पुराण सुख हेत।।
कबीर दास जी का चाहिए दुनिया सिर्फ कुछ दिन की है इसलिए माया मोह रखना इतना उचित नहीं है इसलिए अपना मन अपने गुरु के चरणों में लगाना चाहिए ।
गुरु किया है देह का, सतगुरु चीन्हा नाहिं।
भवसागर के जाल में, फिर फिर गोता खाहि।।
कबीर दास जी कहते हैं कि हमें कभी भी बाहरी आडंबर को देखकर गुरु नहीं बनाना चाहिए, बल्कि ज्ञान और गुण देखकर ही गुरु का चयन करना चाहिए, अन्यथा हमें इस संसार के सागर में गोता लगाना होगा।
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बनिजारे के बैल ज्यों, भरमि फिर्यो चहुँदेश।
खाँड़ लादी भुस खात है, बिन सतगुरु उपदेश।।
कबीर दास जी कहते हैं कि जिस तरह बंजारा बैल पीठ पर चीनी लेकर घूमते हैं, लेकिन उन्हें खाने के लिए भूसा ही मिलता है। उसी प्रकार मानव जीवन भी सद्गुरु की सुन्दर शिक्षाओं के बिना आत्म-साक्षात्कार के मार्ग से वंचित रह जाता है।
यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान।
शीश दियो जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान।
कबीरदास जी कहते हैं कि हमारा शरीर विष के बेल की तरह है और गुरु अमृत की खान की तरह है अगर हम अपना शीश भी गुरु के चरणों में निछावर करते हो फिर भी यह बहुत कम होगा ।
तीरथ गए ते एक फल, संत मिले फल चार ।
सद्गुरु मिले अनेक फल, कहे कबीर विचार ।।
कबीरदास जी कहते हैं अगर आप तीरथ करने जाते हैं तो आपको सिर्फ एक फल मिलता है संत के मिलने से चार प्रकार के फल प्राप्त होते हैं अगर आपको सदगुरु मिल जाए सच्चा गुरु तो आपको अनेक फलों की प्राप्ति होती है ।
गुरु पारस को अन्तरो, जानत हैं सब संत ।
वह लोहा कंचन करे, ये करि लेय महंत ।।
गुरु और पारस के भेद को ज्ञानी भली-भांति जानते हैं। जिस प्रकार पारस का स्पर्श लोहे को सोना बना देता है, उसी प्रकार गुरु की निरंतर उपस्थिति शिष्य को अपने गुरु के समान महान बना देती है।
गुरु बिन ज्ञान न उपजै, गुरु बिन मिलै न मोष।
गुरु बिन लखै न सत्य को, गुरु बिन मैटैं न दोष।।
कबीरदास जी कहते हैं कि बिना गुरु के कोई भी ज्ञान की उपज नहीं होती है बिना गुरु के आपको इस जीवन से मोक्ष की प्राप्ति नहीं होगी बिना गुरु के आपको सत्य की प्राप्ति नहीं हो सकती है बिना गुरु के आपके जीवन के दोष से मुक्त भी आप नहीं हो सकते ।
जाका गुरु है आंधरा, चेला खरा निरंध।
अनेधे को अन्धा मिला, पड़ा काल के फंद।।
कबीरदास जी कहते हैं कि जिसका गुरु अज्ञानी हो तो शिष्य कभी साधु नहीं हो सकता अर्थात शिष्य बहुत अज्ञानी होगा, जैसे अंधा अंधे को मार्ग दिखाने वाले अंधे से मिलता है, वही गति होती है। ऐसे गुरु-शिष्य काल के चक्र में फँसकर अपना जीवन व्यर्थ गँवा देते हैं।
गुरु मुरति आगे खड़ी, दुतिया भेद कछु नाहि।
उन्ही कूं परनाम करि, सकल तिमिर मिटी जाहिं।।
कबीर के अनुसार इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि गुरु की मूर्ति देह रूप में आपके सामने है। गुरु को प्रणाम करो, गुरु की सेवा करो। गुरु द्वारा दिए गए ज्ञान के प्रकाश से अज्ञान का अंधेरा दूर हो जाएगा।
जिन गुरु जैसा जानिया, तिनको तैसा लाभ।
ओसे प्यास न भागसी, जब लगि धसै न आस।।
अर्थ :- कबीरदास जी कहते हैं कि जिसे जैसा गुरु मिला उसे वैसा ही ज्ञान रूपी लाभ प्राप्त हुआ। जिस प्रकार ओस के स्पर्श से हर प्यास नहीं बुझती, उसी प्रकार सच्चे गुरु के बिना सच्चा ज्ञान प्राप्त नहीं किया जा सकता।
गुरु मुरति गति चन्द्रमा, सेवक नैन चकोर।
आठ पहर निरखत रहें, गुरु मुरति की ओर।
कबीरदास जी कहते हैं कि गुरु की महिमा चंद्रमा के समान होती है शिक्षकों आठों पहर गुरु को निहारते रहना चाहिए
गुरु आज्ञा लै आवही , गुरु आज्ञा लै जाय।
कहै कबीर सो सन्त प्रिय, बहु विधि अमृत पाय।।
कबीरदास जी कहते हैं कि गुरु के आदेश से आना चाहिए और गुरु के आदेश से ही कहीं जाना चाहिए। गुरु को ऐसे सेवक बहुत प्रिय होते हैं, जिन्हें गुरु अपने ज्ञान का अमृत रस पीकर आशीर्वाद देते हैं।
कबीर गुरु के देश में, बसि जानै जो कोय।
कागा ते हंसा बनै, जाति वरन कुल खोय।।
कबीर जी कहते हैं कि जो सद्गुरु के देश में रहता है, अर्थात् सदा अपना जीवन सद्गुरु की सेवा में लगा देता है। अपने ज्ञान और आदेशों का पालन करते हुए, वह एक कौवे से हंस बन जाता है। अर्थात् अज्ञान का नाश होता है और ज्ञान का उदय होता है। वह सभी बुरे गुणों से मुक्त होकर संसार में प्रसिद्धि और सम्मान प्राप्त करता है।
गुरु आज्ञा मानै नहीं, चलै अटपटी चाल ।
लोक वेद दोनों गये, आये सिर पर काल ॥
जब तू अपने गुरु की आज्ञा नहीं मानते हैं और अपनी मनमानी करते हैं उस व्यक्ति ने अपनी ज्ञान खो दिया है और उस पर काल नाच रहा है
कहैं कबीर गुरु प्रेम बस, क्या नियरै क्या दूर ।
जाका चित जासों बसै सौ तेहि सदा हजूर ॥
कबीरदास जी कहते हैं क्या जिसके मन में गुरु का प्रेम भरा हुआ है वह उसके लिए दूर नहीं है क्योंकि आपने जिसको मन में बसा कर रखा है वह हमेशा आपके पास रहता है।
प्रेम लटक दुर्लभ महा, पावै गुरु के ध्यान।
अजपा सुमिरण कहत हूं, उपजै केवल ज्ञान॥
कवि कहते हैं कि भगवान से प्रेम की अनुभूति होना अत्यंत दुर्लभ है यह अनुभूति गुरु के माध्यम से ही प्राप्त हो सकती है गुरु के ध्यान से ही ज्ञान की प्राप्ति हो सकती है।
क्या गंगा क्या गोमती, बदरी गया पिराग।
सतगुर में सब ही आया, रहे चरण लिव लाग॥
कवि कहते हैं गुरु के चरणों के आगे गंगा गोमती प्रयाग सभी व्यर्थ है सतगुरु के चरणों में ही स्वर्ग होता है।
इक लख चंदा आणि घर, सूरज कोटि मिलाइ।
दादू गुर गोबिंद बिन, तो भी तिमर न जाइ॥
कवि कहते हैं कि गुरु के बिना अज्ञान रूपी अंधकार नहीं मिट सकता है चाहे एक लाख सूरज और चांद का प्रकाश भी मिल जाए।
आप सभी पाठकों को गुरु पर दोहे कैसे लगे हमने गुरु के दोहे अर्थ सहित लिखने की पूरी कोशिश की यदि कुछ कमी रह गई तो आप अपने विचार कमेंट के माध्यम से हमें बता सकते हैं हम सुधारने की पूरी कोशिश करेंगे ।