पृथ्वी की आंतरिक संरचना Prithvi Ki Aantrik Sanrachna

Prithvi Ki Aantrik Sanrachna

पृथ्वी की आंतरिक संरचना Prithvi Ki Aantrik Sanrachna

Prithvi Ki Aantrik Sanrachna पृथ्वी की आंतरिक संरचना की वास्तविक स्थिति तथा उसकी बनावट के विषय में सही ज्ञान प्राप्त करना असम्भव नहीं तो कठिन कार्य अवश्य है क्योंकि पृथ्वी का आन्तरिक भाग मानव के लिए दृश्य नहीं है।

यद्यपि पृथ्वी का आन्तरिक भाग भूगोल के अध्ययन के क्षेत्र से बाहर है, तथापि इसका अध्ययन इसलिए आवश्यक हो जाता है कि भूगोल के प्रधान विषय- पृथ्वी की सतह की रूप रेखा का स्वभाव भूगर्भ के अनुसार ही निश्चित होता है। पृथ्वी की आंतरिक संरचना की जानकारी प्राप्त करने के लिए अनेक प्रयास जारी हैं।

अब तक लगभग सभी भूगर्भवेत्ता इस बात पर एकमत थे कि प्रायद्वीपीय भारत जो कि प्राचीनतम चट्टानों के बने गोण्डवानालैण्ड का ही एक भाग स्थिर भूखण्ड है तथा इसमें सन्तुलन पूर्णतया स्थापित हो चुका है।

इस क्षेत्र में बड़े पैमाने पर भूगर्भिक हलचल नहीं होनी चाहिए। परन्तु प्रायद्वीपीय भारत के पश्चिमी भाग में महाराष्ट्र के सतारा जिले के कोयना नगर में 11 दिसम्बर, सन् 1967 ई० एवं महाराष्ट्र के लातूर के 30 सितम्बर, 1993 के भयंकर भूकम्प ने, जिसने समस्त पश्चिमी पठार को कंपा दिया, इस बात में संदेह पैदा कर दिया है कि पठारी भाग एक दृढ़ भूखण्ड है। कहने का तात्पर्य यह कि पृथ्वी की आंतरिक संरचना के विषय में सही जानकारी नहीं प्राप्त की जा सकी है।

भूकम्प विज्ञान (seismology) से कुछ विश्वसनीय बातें अवश्य ज्ञात हो जाती हैं।

पृथ्वी की आंतरिक संरचना के विषय में जानकारी देने वाले स्रोतों को तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-

1 अप्राकृतिक स्रोत (Artificial Sources)
(i) घनत्व (density)
(ii) दबाव ( pressure)
(iii) तापमान (temperature)

2. पृथ्वी की उत्पत्ति से सम्बन्धित सिद्धान्तों के साक्ष्य (Evidences from the theories of the origin of the earth)

3. प्राकृतिक स्रोत (Natural Sources)
(i) ज्वालामुखी उद्गार (volcanic eruption)
(ii) भूकम्प विज्ञान (seismology)

1. अप्राकृतिक साधन

(i) घनत्व – पृथ्वी की शैलों के घनत्व, दबाव और भीतर की ओर बढ़ते हुए तापमान के आधार पर पृथ्वी की आंतरिक संरचना के विषय में कई निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। यह बताया जाता है कि पृथ्वी का ऊपरी भाग परतदार शैल का बना है, जिसकी औसत मोटाई, आधे मील के लगभग है कहीं-कहीं पर यह मोटाई कई मील भी है।

इस परतदार सतह के नीचे पृथ्वी के चारों ओर रवेदार अथवा स्फटिकीय शैल (crystalline rocks) की एक दूसरी परत है। इस चट्टानी परत का घनत्व कहीं पर 3.00 है तो कहीं पर 3.5 है। परन्तु समस्त पृथ्वी का औसत घनत्व 5.5 लगभग है। इस आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है कि पृथ्वी के अन्तरतम (core) का औसत घनत्व 5:5 से अधिक होगा। साधारण तौर पर यह घनत्व 11 माना जाता है, जो जल से 7 या 8 गुना भारी है।

न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण सिद्धान्त के आधार पर कैवेन्डिश ने 1798 में पृथ्वी के औसत घनत्व के मापन का प्रयास किया है। इनके अनुसार पृथ्वी का औसत घनत्व जल की तुलना में 5.48 गुना अधिक है।

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प्वायन्टिंग (Poynting) ने 1878 में एक प्रयोग के आधार पर पृथ्वी का औसत घनत्व 5.49 gcms-3 परिकलित किया। 1950 के बाद उपग्रह (satellite) के आधार पर पृथ्वी के औसत घनत्व के परिकलन का सिलसिला प्रारम्भ हो गया है। इसके अनुसार पृथ्वी का औसत घनत्व 5.517gcm-3, धरातल का घनत्व 2.6 से 3.3gcm-3 के बीच तथा केन्द्र का घनत्व 11 gcm 3 परिकलित किया गया है। इस प्रकार यह प्रमाणित होता है कि

(i) पृथ्वी के अन्तरतम का घनत्व सर्वाधिक है।
(ii) दबाव – अब समस्या उठती है कि अन्तरतम का यह अधिक घनत्व किस प्रकार सम्भव है? प्रारम्भ में यह कल्पना की गयी थी कि ऊपर से अन्तरतम (core) की ओर जाने पर चट्टानों का भार तथा दबाव बढ़ता जाता है, अतः पृथ्वी के अन्तरतम का अधिक घनत्व बढ़ते भार के कारण बढ़ते हुए दबाव के कारण है क्योंकि बढ़ते हुए दबाव के साथ चट्टान का घनत्व भी बढ़ जाता है। इस तरह यह प्रमाणित होता है कि

(2) पृथ्वी के अन्तरतम का अत्यधिक घनत्व वहां पर स्थित अत्यधिक दबाव के कारण है।
परन्तु आधुनिक प्रयोगों द्वारा यह प्रमाणित कर दिया गया है कि प्रत्येक शैल में एक ऐसी सीमा होती है, जिसके आगे उसका घनत्व अधिक नहीं हो सकता, उसका दबाव चाहे कितना भी अधिक क्यों न कर दिया जाय।

इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि यदि पृथ्वी के अन्तरतम का घनत्व अधिक दबाव के कारण नहीं है तो वह (core) स्वयं धातु का बना है जिससे पदार्थ स्वयं अधिक घनत्व वाले तथा भारी हैं। अनेक प्रयोगों तथा पर्यवेक्षणों के आधार पर यह मान लिया गया है कि पृथ्वी का अन्तरतम निकल तथा लोहे के मिश्रण का बना है। यह तथ्य पृथ्वी की चुम्बकीय दशा को भी प्रमाणित करता है क्योंकि लोहा तथा निकल प्रधान चुम्बकीय पदार्थ हैं। इस धातुनिर्मित अन्तरतम के चारों ओर शैल की एक दूसरी परत है जिसका कम से कम ऊपरी भाग रवेदार शैलों का अवश्य बना है।

(iii) तापमान – सामान्य रूप से यह विदित है कि (bore holes तथा mines से उपलब्ध विवरणों के आधार पर) पृथ्वी की बाह्य सतह से नीचे की ओर गहराई में जाने पर औसत रूप में तापमान प्रति 100 मीटर पर 20 या 30 सेन्टीग्रेड की दर से बढ़ता है। परन्तु 8 किमी० से अधिक गहराई पर जाने पर तापमान की वास्तविक वृद्धि दर का पता लगाना कठिन हो जाता है। वैज्ञानिकपरीक्षणों के आधार पर महाद्वीपीय क्रस्ट में तापमान की वृद्धि दर का परिकलन भूताप ग्राफ (geotherms graphs) के आधार पर किया गया है। इस विधि से प्राप्त विवरणों के आधार पर यह साधारणीकरण (generalisation) किया गया।

(i) विवर्तनिक रूप से सक्रिय (tectonically active) क्षेत्रों में (यथा संयुक्त राज्य
अमेरिका का Basin and Range Province) सतह से 43 किमी० की गहराई पर तापमान 1000° सें० रहता है, जबकि विवर्तनिक रूप से स्थिर प्रदेशों में 40 किमी० की गहराई पर तापमान 500° सें० ही रहता है।

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इस विवरण से महाद्वीपीय क्रस्ट के व्यवहार के विषय में महत्वपूर्ण ज्ञान प्राप्त होता है । विवर्तनिक रूप से सक्रिय क्षेत्र में क्रस्ट में 40 किमी० की गहराई पर 10000 सें० तापमान गभीर क्रस्ट और मैण्टिल की शैलों खासकर बेसाल्ट तथा पेरिडोटाइट के प्रारम्भिक गलनांक (initial melting) के करीब है। इस तरह क्रस्ट के गर्म क्षेत्र में विवर्तनिक घटना तथा ज्वालामुखी क्रिया तथा गलनांक के करीब तापमान में गहरा सम्बन्ध स्थापित होता है तथा अपेक्षाकृत कम तापमान क्षेत्र दीर्घकालीन भूगर्भिक (विवर्तनिक) स्थिरता से सम्बन्धित है।

महासागरीय क्रस्ट में उमड़ते मैगमा के उच्च तापमान के शीतलन से तापमान प्रभावित होता है। महासागरों में जल की तली में तथा उसके नीचे क्रस्ट के ऊपरी भाग अर्थात् मैगमा पट्ट (magma slab) के ऊपरी भाग में 0° सें० तापमान का अनुमान लगाया जाता है जबकि मैगमा पट्ट के निचले भाग में (जिसका सम्पर्क नीचे स्थित आंशिक रूप से निचले दुर्बलता मण्डल (asthenosphere) से होता है, तापमान 1200° सें० रहता है जो गलनांक के करीब है। यदि गहराई के साथ तापमान की सामान्य वृद्धि दर का आकलन किया जाय तो 2900 किमी० की गहराई पर 25000° सें० तापमान होना चाहिए परन्तु ऐसी दशा में पृथ्वी का अधिकांश भाग पिघल गया होता। परन्तु ऐसा है नहीं।

इससे एक तथ्य सामने उभर कर आता है कि अधिकांश रेडियो सक्रिय तत्व पृथ्वी की सबसे ऊपरी परत में ही केन्द्रित हैं जिनके द्वारा अत्यधिक उष्मा जनित होती है। इससे प्रकट होता है कि तापमान में गहराई के साथ वृद्धि की दर घटती जाती है। पृथ्वी के आन्तरिक भाग में तापमान की स्थिति के विषय में निम्न तथ्य प्रस्तुत किये जा सकते हैं-
(i) दुर्बलता मण्डल (asthenosphere) आंशिक रूप में द्रवित या गलित (molten) है। 100 किमी० की गहराई पर तापमान लगभग 11000 से 12000 सें० है जो प्रारम्भिक गलनांक के
करीब है।

(ii) 400 किमी० की गहराई पर 1500° सें० तथा 700 किमी०. की गहराई पर 1900° सें० तापमान का आकलन किया गया है।

(ii) मैण्टिल तथा बाह्य गलित अन्तरतम की सीमा अर्थात् 2900 किमी० की गहराई पर 3700° सें० तापमान का अनुमान है।

(iv) वाह्य गलित अन्तरतम की सीमा अर्थात् 5100 किमी० पर तापमान 43000 सें० है ।

2. पृथ्वी की उत्पत्ति से सम्बन्धित सिद्धान्तों के साक्ष्य

विभिन्न विद्वानों ने पृथ्वी की उत्पत्ति की समस्या के निदान के लिए उसका मूल रूप ठोस, वायव्य अथवा तरल भाग माना है ।

ग्रहाणु परिकल्पना (planetesimal hypothesis) के अनुसार पृथ्वी का निर्माण ठोस ग्रहाणुओं के समूहन के कारण माना गया है। इस आधार पर पृथ्वी का अन्तरतम ठोस अवस्था में होना चाहिए।

ज्वारीय परिकल्पना (tidal hypothesis) के अनुसार यदि पृथ्वी का निर्माण सूर्य से निस्सृत ज्वारीय पदार्थ से हुआ तो पृथ्वी का अन्तरतम तरल अवस्था में होना चाहिए। लाप्लास महोदय भी, जो कि वायव्य निहारिका परिकल्पना के प्रतिपादक हैं, पृथ्वी के अन्तरतम को तरल मानते हैं। यदि यह तथ्य मान लिया जाय तो अनेक कठिनाइयाँ उपस्थित हो सकती हैं।

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निहारिका परिकल्पना (nebular hypothesis) के अनुसार पृथ्वी की उत्पत्ति गैस से बनी निहारिका से मानी जाती है। इस आधार पर पृथ्वी का अन्तरतम वायव्य अवस्था में होना चाहिए, वैसे लाप्लास अन्तरतम को तरल मानते हैं । जोयपरिज (Zoeppritz) तथा रित्तर (Ritter) नामक विद्वानों ने भी पृथ्वी के अन्तरतम (core) को गैस का बना हुआ माना है । परन्तु यह मत अत्यधिक भ्रामक है। केवल दो सम्भावनाएं हो सकती हैं – या तो अन्तरतम ठोस हो सकता है या तरल।

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3. प्राकृतिक साधन

(i) ज्वालामुखी क्रिया – ज्वालामुखी के उद्गार के समय पृथ्वी के आन्तरिक तथा ऊपरी भाग में गर्म तथा तरल मैगमा पूर्व लावा का विस्तार हो जाता है। इस आधार पर कुछ विद्वानों का यह विश्वास है कि पृथ्वी की गहराई में कम से कम एक ऐसी परत अवश्य है जो कि सदैव तरल अवस्था में रहती है। इसी को मैगमा भण्डार (magma chamber) बताया गया है, जहां से ज्वालामुखी के उद्गार के समय तरल एवं तप्त मैगमा पृथ्वी के ऊपर प्रकट होता है। इस आधार पर पृथ्वी का कुछ भाग तरल अवश्य होना चाहिए।

परन्तु जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है कि पृथ्वी की आंतरिक संरचना में अत्यधिक दबाव चट्टानों को पिघली अवस्था में नहीं रहने देगा। इस प्रकार आन्तरिक भाग ठोस होगा न कि तरल। हाँ, यह सम्भव हो सकता है कि पृथ्वी के ऊपरी भाग पर दरार आदि पड़ने से चट्टान का दबाव कम हो जाता है, जिससे चट्टान का गलनांक बिन्दु गिर जाता है।

जिस कारण चट्टान वहाँ पर अधिक ताप के कारण पिघल कर ज्वालामुखी के रूप में प्रकट हो जाती है।इस तरह ज्वालामुखी के उद्गार से भी पृथ्वी की आंतरिक संरचना के विषय में कोई निश्चित तथ्य नहीं निकल पाते हैं ।

(ii) भूकम्प विज्ञान के साक्ष्य (evidences of seismology ) – भूकम्प विज्ञान वह विज्ञान है जिसमें भूकम्पीय लहरों (seismic waves) का सीसमोग्राफ यंत्र द्वारा अंकन करके अध्ययन किया जाता है। भूकम्प विज्ञान ही एक ऐसा प्रत्यक्ष साधन है, जिससे पृथ्वी के आन्तरिक भाग की बनावट के विषय में पर्याप्त जानकारी उपलब्ध होती है। यहाँ पर संक्षेप में उसके केवल उस भाग का उल्लेख करेंगे, जिससे पृथ्वी की आंतरिक संरचना के विषय में जानकारी प्राप्त होती है ।

जिस जगह से भूकम्प का कम्पन प्रारम्भ होता है, उसे हम भूकम्प मूल (focus) कहते हैं तथा जहाँ पर भूकम्पीय लहरों का अनुभव सबसे पहले किया जाता है, उसे भूकम्प केन्द्र (epicen-tre) कहते हैं । भूकम्प के दौरान पृथ्वी में कई प्रकार की लहरें उत्पन्न होती हैं। इन लहरों को भूकम्पीय लहर (seismic waves) कहते हैं ।

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