धैर्य के साथ तलाशें जीवन का आनंद

धैर्य के साथ तलाशें जीवन का आनंदधैर्य के साथ तलाशें जीवन का आनंद

 

– स्वामी सुखबोधानंद
जीवन एक बड़ा रहस्य है। जीवन को समझना वैसा ही है जैसे गद्य में छुपे पद्य को अनुभूत करना। प्रार्थना जीवन के प्रति हमारा विश्वास जमाने में मदद करती हैं। यह अलौकिक को समझने का दरवाजा है।
अलौकिक शक्ति को तर्क के सहारे नहीं समझा जा सकता है उसे तो बस दिल के जरिए महसूस किया जा सकता है। प्रार्थना के जरिए हम अपने हृदय को कुछ महसूस करने के लिए तैयार करते हैं। हम अपनी संवेदनाओं को जाग्रत करते हैं। जीवन को आनंद और प्रसन्नता के साथ जीने के लिए यह बहुत जरूरी है।
हम प्रार्थना को दिमाग से समझने की कोशिश करते हैं जबकि उसे दिल के सहारे ही समझा जा सकता है। दिमाग के सहारे प्रार्थना को समझने की कोशिश वैसी ही है कि हम अपने कानों के जरिए कुछ देखना चाहते है। इसे समझिए कि जब व्यक्ति प्रार्थना करता है तो प्रकृति से उसे जवाब मिलता है।
हम अपने मन की गहराइयों से जो प्रार्थना करते हैं उसे समझने की कोशिश कीजिए। अक्सर हम जो प्रार्थना करते हैं उसके प्रति चैतन्य नहीं होते हैं। हम उन चीजों के लिए प्रार्थना करते हैं जो तात्कालिक हैं और इसलिए प्रार्थना की शक्ति को अनुभूत नहीं करते हैं।
हमारी कुछ प्रार्थनाएं तो विलाप भर ही होती हैं। जैसे कि हम कहते हैं, ‘हे ईश्वर, मैं चाहता हूं कि तू मुझे उठा ले’ और जब ऐसा होता है तो हम ईश्वर के प्रति नाराजगी व्यक्त करते हैं। लोग मुसीबत के बारे में बिना जाने ही उन्हें बुलाने के लिए प्रार्थना कर बैठते हैं।
इसका कारण है कि हम यंत्रवत हो गए हैं। अगर हम अपनी संवेदना का स्तर बढ़ाते हैं तो प्रकृति से की गई हमारी प्रार्थना जरूर सच होती है। लेकिन हमें अपनी प्रार्थना के प्रति चैतन्य होना होगा। हमें अपने मन को समझना होगा। अपने दिल को टटोलना होगा।
कई लोगों को लगता है कि उनका जीवन बहुत निष्क्रिय और बोरिंग है, ऐसा क्यों? क्योंकि उनका मस्तिष्क एक बंदर की तरह है… वह हमेशा बेचैन रहता है। इस तरह हम कभी प्रसन्न नहीं रह सकते हैं। यह केवल बंदर की तरह बर्ताव नहीं करता है बल्कि मदहोशी में भी चलता है।
इससे अंदाज लगाइए कि वह किस तरह काम करता है। इस तरह के मस्तिष्क के साथ हम कल्पनाओं में जीते हैं और सच को नहीं देख पाते हैं।
सत्य हमें मुक्त करता है। मस्तिष्क सत्य को नहीं देखता और कल्पना में ही रहने लगता है। एक कहानी के जरिए इसे समझने की कोशिश कीजिए। एक गुरु अपने आश्रम में शिष्यों को व्याख्यान दे रहे थे। उस दिन बाहर बारिश हो रही थी तो वहां से गुजरने वाला एक व्यक्ति भी आश्रम के भीतर आ गया और गुरु-शिष्य संवाद सुनने लगा। गुरु ने कहा, ‘मैं हिमालय यात्रा पर था और मंत्र जाप कर रहा था, तब एक बाघ ने मंत्रोच्चारण सुना और मुझे घूरकर देखा।’
सभी शिष्य उत्सुक हो गए और पूछने लगे ‘फिर क्या हुआ?’ गुरु आगे बोले, ‘बाघ मेरे मंत्रोच्चार से इतना अधिक प्रभावित हुआ कि वह ध्यान की मुद्रा में बैठ गया।’ बहुत ज्यादा उत्सुकता से शिष्यों ने पूछा- ‘फिर क्या हुआ?’ गुरु आगे बोले, ‘फिर मैंने बाघ को एक मंत्र दिया।’
इसके आगे उन्होंने कहा ‘फिर बाघ मुझे खा गया।” यह सुनकर उस आगंतुक ने चिल्लाकर कहा, ‘यह क्या बकवास लगा रखी है। अगर बाघ ने आपको खा लिया तो इस समय आप जिंदा कैसे हैं?’ वर्मा जी बोले, ‘यह भी कोई जीना है?’
जिस तरह लोग जी रहे हैं वह क्या जिंदगी है… वह तो गतिमान लेकिन मृत्यु समान जीवन है। हमें मस्तिष्क को शांत रखकर जीवन को देखना चाहिए। हम पाएंगे कि जीवन प्रतिपल बदल रहा है। हमारा मस्तिष्क बेचैनी के कारण मृत सदृश हो गया है और इसलिए हमें जीवन बहुत बोरिंग लगता है। हमने अपने दिल की सुनना बंद कर दिया है।
हम जीवन में हताशा क्यों महसूस करते हैं? जीवन कभी निराशाजनक नहीं है… बल्कि हमारा मस्तिष्क चूंकि बहुत ज्यादा अपेक्षाओं से भरा है और वे अपेक्षाएं निराशाजनक हैं। जीवन बहुत सुंदर है लेकिन मस्तिष्क की अपेक्षाओं ने उसे कब्जा लिया है। आपकी महत्वाकांक्षाओं के लिए आप ही जिम्मेदार हैं।
आप अपनी महत्वाकांक्षाओं को बढ़ाते चले जाते हैं और दु:खी रहते हैं। इसका मतलब यह नहीं कि आपकी महत्वाकांक्षा नहीं होना चाहिए लेकिन आप अपनी महत्वाकांक्षाओं के दास नहीं होने चाहिए।
जब आप महत्वकांक्षाओं के अधीन होकर जीवन को भूल जाते हैं तब सारी गड़बड़ होती है। अपने महत्वाकांक्षाओं पर नियंत्रण रखें तो सबकुछ अच्छा है लेकिन जब आप महत्वाकांक्षाओं से संचालित होने लगते हैं तो मुश्किल पैदा होती है।
इसलिए अगर जीवन में प्रसन्नता पाना है तो अपना ध्यान उन चीजों पर लगाइए जो आपके पास है बजाय कि उन चीजों के बारे में सोचने के जो आपके पास नहीं हैं। धैर्य के साथ जीवन को जिएं। गति को थोड़ा कम कर दें और फिर देखें जीवन प्रसन्नता से भर जाएगा।
इस आशय की एख छोटी कथा बताता हूं। एक गुरु और शिष्य पहाड़ पर चढ़ रहे थे। शिष्य थोड़ा नर्वस था और बीच में से गिर पड़ा और एक टहनी पर जाकर अटक गया।
शिष्य ने चिल्लाकर पूछा, ‘मैं क्या करूं?’ गुरु ने सलाह दी, ‘नीचे का दृश्य देखो और आनंद में रहो।’ हमारे भीतर इतना धैर्य होना चाहिए। जब इतना धैर्य होगा तो हम जीवन में आनंद को तलाश सकेंगे।


 

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