उत्प्रेक्षा अलंकार की परिभाषा
जब उपमेय को उपमान से भिन्न जानते हुए भी उसमें उपमान की सम्भावना या कल्पना की जाती है, तब उत्प्रेक्षा अलंकार होता है। मनु, मनहुँ, जनु, जानहु, जानो, निश्चय, मेरे जान, इव, अथवा इनके पर्यायवाची शब्द उप्रेक्षा के वाचक शब्द है, जैसे
सौहत औहे पीत पट, स्याम सलौने गात । मनहुँ नीलमनि सैल पर, आतप पर्यो प्रभात ।।
अर्थात् श्रीकृष्ण के श्याम शरीर पर पीताम्बर ऐसा मालूम देता है. मानो नीलम के पर्वत पर प्रात:कालीन सूर्य की किरणें पड़ रही हो।
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उदाहरण
मोर – मुकुट की चन्द्रिकनु , यौं राजत नँद नन्द ।
मनु ससि सेखर की अकस , किये सेखर सत – चन्द्र ॥
ले चला साथ मैं तुझे कनक । ज्यों भिक्षुक लेकर स्वर्ण ॥
सिर फट गया उसका वहीं । मानो अरुण रंग का घड़ा हो॥
फूले कास सकल महि छाई ।
जनु रसा रितु प्रकट बुढ़ाई ॥
तव पद समता को कोमल,
जन सेत्क इक पांय ॥
कहतीं हुई यो उत्तरा के, नेत्र जल से भर गए ।
हिम के कणों से पूर्ण मानों, हो गए पंकज नए । ।
नेत्र मानव कमल है ।
पुलक प्रकट करती है धरती, हरित तृणों की नोकों से ।
मानों झूम रहे हों तरु भी , मन्द पवन के झोंको से ॥
धायें धाम काम सब त्यागी । मनहुँ रंक निधि लूटन लागी ||
उभय बीच सिय सोहति कैसी । ब्रह्य-जीव बिच माया जैसी ॥ बहुरि कहउँ छबि जस मन बसई | जनु मधु मदन मध्य रति लसई ॥
पाहून ज्यों आये हों गांव में शहर के ; मेघ आये बडे बन ठन के संवर के ।
जान पड़ता है नेत्र देख बड़े-बड़े हीरो में गोल नीलम है जड़े ॥
कहती हुई यों उत्तरा के नेत्र जल जल से भर गए हिम कणों से पूर्ण मानो हो गए पंकज नए ।
नील परिधान बीच सुकुमारी खुल रहा था मृदुल अधखुला अंग, खिला हो ज्यो बिजली का फूल मेघवन गुलाबी रंग ।
मानो माई घनघन अंतर दामिनी । घन दामिनी घन अंतर, शोभित हरि ब्रज भामिनी ॥
चमचमात चंचल नयन, बिच घूँघट पट छीन ।
मनहु सुरसरिता विचल, जल उछरत जुग मीन ॥
लता भवन ते प्रकट भए , तेहि अवसर दोउ भाइ ।
निकसे जनु जुग बिमल बिधु , जलज पटल बिलगाई ॥
चमचमात चंचल नयन, बिच घूँघट पट छीन ।
मानहूँ सुरसरिता, बिमल, जग उछरत जुग मीन ॥
अर्ध चन्द्र सम सिखर – स्त्रैनि कहुँ यों छबि छाई ।
मानहुँ चन्दन – घौरि धौरि – गृह खौरि लगाई ॥
उत्प्रेक्षा अलंकार:
उपमेयस्य उपमानरूपे सम्भावना उत्प्रेक्षाअलंकार: कथ्यते ।
भवेत् सम्भावनोत्प्रेक्षा प्रकृतस्य परात्मना ।
अर्थात् यत्र उपमेयस्य सम्भावना उपमानवत् क्रियते तत्र उत्प्रेक्षाअलंकार: भवति ।
उत्प्रेक्षाया: व्युत्पत्ति: – ”उत् उर्ध्वंगता प्रेक्षा दृष्टि: प्रतिभा च यस्यां सोत्प्रेक्षा”
आचार्यविश्वनाथेन उत्प्रेक्षाया: भेदोपभेदा: स्वीकृत: अस्ति । उत्प्रेक्षावाचकशब्दानां सन्दर्भे स: उक्तवान् – ”मन्ये शंके ध्रुवं प्रायो नूनमित्येवमादय:” ।
आचार्य दण्डिना उत्प्रेक्षावाचकशब्दानां सूची प्रस्तुवन् ‘काव्यादर्शे’ निगदितमस्ति –
”मन्ये शंके ध्रुवं प्रायो नूनमित्येवमादिभि: ।
उत्प्रेक्षा व्यज्यते शब्दैरिवशब्दोपि तादृश: ।।”
उदाहरणम् –
लिम्पतीव तमोंगानि वर्षतीवांजनं नभ: ।
असत्पुरुषसेवेव दृष्टिर्विफलतां गता ।।
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