रस – परिभाषा, भेद और उदाहरण – Ras in Hindi

Ras in Hindi

आज हम जानेंगे हिंदी व्याकरण में रस के बारे रस की परिभाषा रस कितने प्रकार के होते हैं उसके साथ हर एक रस का वर्णन देखेंगे।

रस Ras in Hindi

Ras in Hindi कविता, कहानी, उपन्यास आदि पढ़कर-सुनकर या किसी अभिनय को देखकर जब चित्त विविध भावों के संयोग से आनन्द में तन्मय हो जाता है, तो उस परिणति को रस कहते हैं। ‘रस्यते आस्वाद्यते इति रसः’ अर्थात् जिसका आस्वादन होता हो, उसे रस कहते हैं। काव्यानन्द को लक्ष्य करके सर्वप्रथम रस का विवेचन ‘भरतमुनि’ के ‘नाट्यशास्त्र’ में प्राप्त होता है। नाट्यशास्त्र का समय ईसवी सन् की प्रथम शताब्दी माना जाता है। रस की निष्पत्ति के सम्बन्ध में भरत मुनि ने लिखा है- ‘विभावानुभावव्यभिचारि संयोगाद्रसनिष्पत्तिः’ अर्थात् विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भावों के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है। इसे रस-सूत्र कहा जाता है।
किसी विशेष स्थिति में प्रभावित मन की असाधारण दशा भाव कहलाती है। भाव ही रस का आधार है। भाव चार प्रकार के होते हैं-स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव और संचारी भाव।

रस की परिभाषा Ras Ki Paribhasha

कविता, कहानी, उपन्यास आदि पढ़कर-सुनकर या किसी अभिनय को देखकर जब चित्त विविध भावों के संयोग से आनन्द में तन्मय हो जाता है, तो उस परिणति को रस कहते हैं। ‘रस्यते आस्वाद्यते इति रसः’ अर्थात् जिसका आस्वादन होता हो, उसे रस कहते हैं।

स्थायी भाव

ऐसे भाव जो हृदय में संस्कार रूप में स्थित होते हैं, जो चिरकाल तक रहने वाले अर्थात् अक्षय, स्थिर और प्रबल होते हैं तथा जो रसरूप में परिणत होते हैं स्थायी भाव कहलाते हैं।
स्थायी भाव मूलतः नौ माने गए हैं। प्रत्येक रस का एक स्थायी भाव होता है अत: रसों की संख्या भी नौ ही होती है। किन्तु ‘रति’ नामक स्थायी भाव को दो अन्य वर्गों में भी गिना जाता है। जैसे-वत्सलता (संतान विषयक रति या प्रेम) तथा भक्ति विषयक रति (भगवद्भक्ति)। अत: इससे सम्बन्धित दो और रसों का उल्लेख भी किया जाता है, जो क्रमश: वात्सल्य रस एवं भक्ति रस के नाम से जाने जाते हैं यद्यपि इनकी गणना मूल रसों में नहीं की जाती।
यह उल्लेखनीय है कि नाट्यशास्त्र के रचयिता भरत मुनि ने नाटक के प्रसंग में स्थायी भावों की संख्या भी आठ ही मानी है। उनके अनुसार ‘निवेद’ नामक स्थायी भाव और शांत रस का अभिनय रंगमंच पर सम्भव नहीं है।
सभी स्थायी भावों तथा इनसे सम्बन्धित रसों का विवरण निम्न प्रकार है

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चूंकि वात्सल्य के मूल में अपत्य स्नेह ठहरता है, अत: वह शृंगार का अंग है। इसी प्रकार भक्ति रस स्वतन्त्र रस न होकर पूज्य बुद्धि समन्वित रति होने के कारण शृंगार रस का ही अंग सिद्ध होता है। इस प्रकार रसों की सही संख्या 9 ही है।

विभाव

जो व्यक्ति, वस्तु, परिस्थितियाँ आदि स्थायी भावों को उद्दीप्त या जाग्रत करती हैं, उन्हें ‘विभाव’
कहते हैं। विभाव दो प्रकार के होते हैं-‘आलम्बन विभाव और ‘उद्दीपन’ विभाव।

शकुन्तला को देखकर दुष्यन्त के मन में रति (प्रेम) भाव जाग्रत हुआ, तो यहाँ शकुन्तला आलम्बन विभाव है और दुष्यन्त ‘आश्रय’ है। एकांत, चाँदनी रात, नदी का किनारा, उपवन आदि से यह रति भाव और भी उद्दीप्त हो जाएगा। अत: ये सब ‘उद्दीपन विभाव’ कहलाते हैं।

 अनुभाव

आलम्बन तथा उद्दीपन द्वारा आश्रय के हृदय में स्थायी भाव के जाग्रत तथा उद्दीप्त होने पर आश्रय में जो चेष्टाएँ होती हैं, उन्हें अनुभाव कहते हैं। अनुभाव चार प्रकार के माने गए हैं-कायिक, मानसिक, आहार्य और सात्विक। जैसे-हृदय में जब क्रोध जाग्रत होगा, तो व्यक्ति का चेहरा लाल हो जाएगा, मुट्ठियाँ कस जाएँगी, दाँत भींचने लगेगा, आँखें लाल हो जाएँगी। ये सभी चेष्टाएँ अनुभाव के अन्तर्गत आती हैं।
सात्विक अनुभावों की संख्या आठ बताई गई है। कम्प, स्वेद, अश्रु, रोमांच, कंठाविरोध आदि सात्विक अनुभाव हैं क्योंकि इन पर हमारा वश नहीं चलता। जंगल में अचानक शेर को देखकर किसी व्यक्ति के मन में ‘भय’ नामक स्थायी भाव जाग्रत होगा और इस भय के कारण उसका शरीर काँपने लगेगा। यह कम्पन (कांपना) सात्विक अनुभाव है। क्योंकि प्रयास करने पर भी यह काँपना रुकेगा नहीं।

संचारी भाव

आश्रय के चित्त में उत्पन्न होने वाले अस्थिर मनोविकारों को ‘संचारी भाव’ कहते हैं। इसके द्वारा स्थायी भाव और भी तीव्र हो जाता है, जैसे-शकुंतला से प्रीतिबद्ध दुष्यन्त के चित्त में उल्लास, चपलता, व्याकुलता आदि संचारी भाव हैं। इन्हें व्यभिचारी भाव भी कहते हैं। इनकी संख्या 33 मानी गई है।

रस कितने प्रकार के होते हैं

रस 9 प्रकार के होते हैं इसलिए इनको नवरस भी कहा जाता है।

श्रृंगार रस

जहाँ काव्य में ‘रति’ नामक स्थायी भाव विभाव, अनुभाव और संचारी भावों से पुष्ट होकर रस में परिणत होता है वहाँ श्रृंगार रस होता है। श्रृंगार रस के दो भेद हैं-i) संयोग शृंगार (ii) वियोग शृंगार

(i) संयोग श्रृंगार-संयोग का अर्थ है-सुख या आनन्द की प्राप्ति या अनुभव करना। काव्य में जहाँ नायक और नायिका के मिलन का वर्णन हो, वहाँ संयोग श्रृंगार होता है, जैसे
बतरस लालच लाल की, मुरली धरी लुकाय।। सौंह करैं भौंहन हँसे, देन कहैं नटि जाय।।।

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 (ii) वियोग या विप्रलम्भ श्रृंगार-जहाँ परस्पर अनुरक्त नायक और नायिका के वियोग तथा मिलन में अवरोध अथवा पूर्व मिलन का स्मरण हो, वहाँ वियोग या विप्रलम्भ शृंगार होता है, जैसे
सुनि-सुनि ऊधव की अकह कहानी कान,

कोऊ थहरानी, कोऊ थानहिं थिरानी हैं।

कोऊ स्याम-स्याम कै बहकि बिललानी कोऊ

कोमल करेजो थामि सहमि सुखानी हैं।

हास्य रस

काव्य में किसी की विचित्र वेशभूषा, चेष्टा, कथन आदि हँसी उत्पन्न करने वाले कार्यों का वर्णन ‘हास्य रस’ कहलाता है, जैसे
काहूँ न लखा सो चरित बिसेषा।

सो सरूप नृप-कन्याँ देखा। मर्कट बदन भयंकर देही।

देखत हृदयँ क्रोध भा तेही।। जेहि दिसि बैठे नारद फूली।

सो दिसि तेहिं न बिलोकी भूली।

पुनि-पुनि मुनि उकसहिं अकुलाहीं।
देखि दसा हर गन मुसुकाहीं।।

 करुण रस

किसी प्रिय वस्तु अथवा व्यक्ति आदि के अनिष्ट की आशंका या इनके विनाश से हृदय में उत्पन्न क्षोभ या दुःख को ‘करुण रस’ कहते हैं। इसका स्थायी भाव ‘शोक’ हैं। विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से पूर्णता प्राप्त होने पर ‘शोक’ नामक स्थायी भाव से ‘करुण रस’ की निष्पत्ति होती है, जैसेसोक बिकल सब रोवहिं रानी। रूपु सीलु बलु तेजु बखानी।।

करहिं बिलाप अनेक प्रकारा। परहिं भूमि तल बारहिं बारा।।

रौद्र रस

शत्रु  या किसी दुष्ट अत्याचारी द्वारा किए गए अत्याचारों को देखकर अथवा गुरुजनों/आत्मीयजनों की निंदा सुनकर चित्त में एक प्रकार का क्षोभ उत्पन्न होता है जिसे ‘क्रोध’ कहते हैं। यही ‘क्रोध’ नामक स्थायी भाव जब विभाव, अनुभाव और संचारी भावों के संयोग से रस रूप में परिणत होता है तब ‘रौद्र रस’ कहलाता है, जैसे
माखे लखनु कुटिल भई भौंहें। रदपट फरकत नयन रिसौहैं।।

रघुबंसिन्ह महँ जहँ कोउ होई। तेहिं समाज अस कहइ न कोई।।

वीर रस

शत्रु का उत्कर्ष, दीनों की दुर्दशा, धर्म की हानि आदि को देखकर इनको मिटाने के लिए हृदय में जो ‘उत्साह जाग्रत होता है वह विभाव, अनुभाव और संचारी भावों के संयोग से ‘वीर रस’ में परिणत हो जाता है। उत्साह चार प्रकार का होता है

(i) शत्रु के उत्कर्ष को मिटाकर आत्मोद्धार का उत्साह

(ii) दीन के दु:ख को दूर करने का उत्साह

(iii) अधर्म को मिटाकर धर्म का उद्धार करने का उत्साह

(iv) सुपात्र को दान देकर उसके कष्ट दूर करने का उत्साह
उत्साह के उपर्युक्त भेदों के आधार पर ‘वीर रस’ के भी चार भेद हैं-‘युद्धवीर’, ‘दयावीर’, ‘दानवीर’ और ‘धर्मवीर’।
उदाहरण

जब दहक उठा सीमांत, पुकारा माँ ने शीश चढ़ाने को।

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नौजवाँ लह तब तड़प उठा, हँसते-हँसते बलि जाने को।

गरजे थे लाखों कंठ, आज दुश्मन को मजा चखाएँगे।

भारत धरणी के पानी का, जौहर जग को दिखलाएँगे।

भयानक रस

किसी भयानक वस्तु या जीव को देखकर भावी दुःख की आशंका से हृदय में जो भाव उत्पन्न होता है उसे ‘भय’ कहते हैं। भय नामक स्थायी भाव की विभाव, अनुभाव और संचारी भावों के संयोग से जो रस निष्पत्ति होती है, उसे ‘भयानक रस’ कहते हैं, जैसे
लंका की सेना तो कपि के गर्जन रव से काँप गई।

हनुमान के भीषण दर्शन से विनाश ही भांप गई।

वीभत्स रस

सड़ी हुई लाशें, दुर्गन्ध आदि देखकर या अनुभव करके हृदय में घृणा या जुगुप्सा उत्पन्न होती है। यही ‘जुगुप्सा’ स्थायी भाव जब जाग्रत होकर विभाव. अनुभाव और संचारी भावों के संयोग से रस रूप में परिणत होता है, तो उसे ‘वीभत्स रस’ कहते हैं, जैसे घर में लाशें, बाहर लाशें, जनपथ पर सड़ती लाशें। आँखें नृशंस यह दृश्य देख मुंद जातीं, घुटती हैं श्वाँसे।।

अदभुत रस

किसी असाधारण वस्तु या घटना को देखकर हृदय में कुतूहल विशेष तथा आश्चर्य भाव उत्पन्न होता है, जिसे ‘विस्मय’ कहते हैं। यही स्थायी भाव ‘विस्मय’ जब विभाव, अनुभाव और संचारी भावों के संयोग से रस रूप में परिणत हो जाता है तब उसे अदभुत रस कहते हैं, जैसे
इहाँ उहाँ दुइ बालक देखा। मति भ्रम मोरि कि आन बिसेखा।।

शांत रस

संसार की नश्वरता और ईश्वर की सत्ता का ज्ञान हो जाने पर सांसारिक माया-मोह के प्रति ग्लानि या वैराग्य-सा हो जाता है। इस वैराग्य भावना को ही ‘निर्वेद’ कहते हैं। यही ‘निर्वेद’ स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव तथा संचारी भावों से संयुक्त होकर रस रूप में परिणत हो जाता है, तब ‘शांत रस’ कहलाता है, जैसे
अब लों नसानी अब न नसैहौं। राम कृपा भव निसा सिरानी जागे फिर न डसैहौं।

भक्ति रस

भगवद् गुण सुनकर जब चित्त उसमें निमग्न हो जाता है तब ‘भगवद्विषयक अनुराग’ नामक स्थायी भाव उत्पन्न होता है। यह विभाव, अनुभाव तथा संचारी भाव से संयुक्त होकर ‘भक्ति रस’ में परिणत हो जाता है जैसे
मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई।

वात्सल्य रस

माता-पिता का संतान के प्रति जो स्नेह होता है, उसे वात्सल्य’ कहते हैं। यही ‘वात्सल्य’ स्थायी भाव जब विभाव, अनुभाव और संचारी भावों से संयुक्त होकर रस रूप में परिणत हो जाता है तब ‘वात्सल्य रस’ कहलाता है, जैसे

किलकत कान्ह घुटुरुवन आवत। मनिमय कनक नंद के आँगन बिम्ब पकरिवे धावत।

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