रामायण की सर्वश्रेष्ठ चौपाई Ramayan Ki Chaupai
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नमस्कार दोस्तों रामायण जो सनातन धर्म का मुख्य ग्रंथ माना जाता है आज हम पढ़ाएंगे रामचरितमानस के कुछ महत्वपूर्ण रामायण की सर्वश्रेष्ठ चौपाई Ramayan Ki Chaupai
बिनु सत्संग विवेक न होई।
राम कृपा बिनु सुलभ न सोई॥
सठ सुधरहिं सत्संगति पाई।
पारस परस कुघात सुहाई॥
अर्थ : तुलसीदास जी कहते हैं सत्संग के बिना विवेक नहीं होता अर्थात अच्छा बुरा समझने की क्षमता विकसित नहीं होती है राम की कृपा अच्छी संगति की प्राप्ति नहीं होती है सत्संगति से ही हमें अच्छे ज्ञान की प्राप्ति होती है दुष्ट प्रकृति के लोग भी सत्संगति वैसे ही सुधर जाते हैं जैसे पारस के स्पर्श से लोहा सुंदर सोना बन जाता है।
जनकपुरी रघुनन्दन आये ।
नगर निवासी दर्शन पाए ।।
अर्थ जब रघुनंदन अवधपुरी जाते हैं तो सभी नगर के निवासि दर्शन पाते हैं
जा पर कृपा राम की होई।
ता पर कृपा करहिं सब कोई॥
जिनके कपट, दम्भ नहिं माया।
तिनके ह्रदय बसहु रघुराया॥
अर्थ : तुलसीदास जी कहते हैं जिस मनुष्य पर राम की कृपा होती है उस पर सभी को की कृपा होने लगती है । और जिनके मन में कपट, दम्भ और माया नहीं होती, उन्हीं के हृदय में भगवान राम का निवास होता है।
वन में जाये ताड़का मारी ।
चरण छुए अहिल्या तारी
ऋषियों के दुःख हरते राम।।
राम सिया राम, सिया राम जय जय राम,
राम सिया राम, सिया राम जय जय राम
अर्थ हे प्रभु आपने वन में जाकर ताड़का का वध किया आपके चरण के स्पर्श से अहिल्या का उद्धार किया आप ऋषि यों के दुख को हरने वाले हैं
कहेहु तात अस मोर प्रनामा।
सब प्रकार प्रभु पूरनकामा॥
दीन दयाल बिरिदु संभारी।
हरहु नाथ मम संकट भारी॥
अर्थ : हे तात आप मेरा प्रणाम स्वीकार करें और मेरे सभी कार्य को पूर्ण करें आप दीनदयाल हैं सभी व्यक्तियों के कष्ट दूर करना की प्रकृति है इसलिए आप मेरे सभी कष्टों को दूर कीजिए
भीड़ पड़ी जब भक्त पुकारे ।
दूर करो प्रभु दुःख हमारे ।
दशरथ के घर जन्मे राम ।।
राम सिया राम, सिया राम जय जय राम,
राम सिया राम, सिया राम जय जय राम,
हरि अनंत हरि कथा अनंता।
कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता॥
रामचंद्र के चरित सुहाए।
कलप कोटि लगि जाहिं न गाए॥
अर्थ : भगवान हरि अनंत है उनकी कथाओं का भी कोई अंत नहीं है उनकी कथाओं का रसपान लोग अलग-अलग तरह से करते हैं अर्थात कथाओं की विवेचना लोग अलग-अलग करते हैं राम का चरित्र किस तरह है करोड़ों बार भी उसको गाया नहीं जा सकता है
धीरज धरम मित्र अरु नारी
आपद काल परखिये चारी॥
अर्थ तुलसीदास जी कहते हैं कि धीरज धर्म मित्र और नारी इन चारों लोगों की परीक्षा आपके विपत्ति के समय ही होती है
जासु नाम जपि सुनहु भवानी।
भव बंधन काटहिं नर ग्यानी॥
तासु दूत कि बंध तरु आवा।
प्रभु कारज लगि कपिहिं बँधावा॥
अर्थ : भगवान शिव कहते हैं हे भवानी सुनो – जिनका नाम जपकर जन्म-मरण के बंधन को काटा जा सकता है क्या उनका दूत किसी बंधन में बंध सकता है लेकिन प्रभु के कार्य के लिए हनुमान जी ने स्वयं को शत्रु के हाथ से बंधवा लिया।
रघुकुल रीत सदा चली आई
प्राण जाए पर वचन न जाई॥
अर्थ रघु की कुल की सदा ऐसी रीत चली आई है प्राण तो चले जाते हैं लेकिन कभी भी वचन की मर्यादा नहीं जाती है
एहि महँ रघुपति नाम उदारा।
अति पावन पुरान श्रुति सारा॥
मंगल भवन अमंगल हारी।
उमा सहित जेहि जपत पुरारी॥
अर्थ : रामचरितमानस में श्री रघुनाथजी का उदार नाम है, जो अत्यन्त पवित्र है, वेद-पुराणों का सार है, मंगल करने वाला और अमंगल को हरने वाला है, जिसे पार्वती जी सहित स्वयं भगवान शिव सदा जपा करते हैं।
रामायण की सर्वश्रेष्ठ चौपाई अर्थ सहित
जाकी रही भावना जैसी
प्रभु मूरति देखी तिन तैसी॥
अर्थ आपके मन में भावना जिस तरह की रहती है प्रभु के दर्शन भी उसी रूप में होता है
होइहि सोइ जो राम रचि राखा।
को करि तर्क बढ़ावै साखा॥
अस कहि लगे जपन हरिनामा।
गईं सती जहँ प्रभु सुखधामा॥
अर्थ : होगा वही जो प्रभु राम जो कुछ राम ने रच रखा है, वही होगा। तर्क करके कौन शाखा (विस्तार)से कोई लाभ नहीं। ऐसा कहकर भगवान शिव हरि का नाम जपने लगे और सती वहाँ गईं जहाँ सुख के धाम प्रभु राम थे।
करमनास जल सुरसरि परई,
तेहि काे कहहु सीस नहिं धरई।
उलटा नाम जपत जग जाना,
बालमीकि भये ब्रह्म समाना।।
अर्थ: कर्मनास का जल यदि गंगा में पड़ जाए तो कहो उसे कौन नहीं सिर पर रखता है अर्थात अशुद्ध जल भी गंगा के समान पवित्र हो जाता है। सारे संसार को विदित है की उल्टा नाम का जाप करके वाल्मीकि जी ब्रह्म के समान हो गए।
सेवक सठजेहि के नृप कृपन कुनारी।
कपटी मित्र सूल सम चारी॥
सखा सोच त्यागहु बल मोरें।
सब बिधि घटब काज मैं तोरें॥
अर्थ- मूर्ख सेवक, कंजूस राजा, कुलटा स्त्री और कपटी मित्र- ये चारों शूल के समान पीड़ा देने वाले हैं।
अनुचित उचित काज कछु होई,
समुझि करिय भल कह सब कोई।
सहसा करि पाछे पछिताहीं,
कहहिं बेद बुध ते बुध नाहीं।।
अर्थ : किसी भी कार्य का फल सही होगा या गलत यह जानकर उसे अवश्य करना चाहिए, इसी को सभी शुभ कहते हैं। जो बिना सोचे समझे कार्य करते हैं वे बाद में पछताते हैं उन्हें कोई भी वेद और विद्वान बुद्धिमान नहीं कहता।
जौं तुम्हरें मन अति संदेहू। तौ किन जाइ परीछा लेहू॥
तब लगि बैठ अहउँ बटछाहीं। जब लगि तुम्ह ऐहहु मोहि पाहीं॥
भावार्थ:-जो तुम्हारे मन में बहुत शंका है तो परीक्षा क्यों नहीं लेते?
गगन चढ़इ रज पवन प्रसंगा।
कीचहिं मिलइ नीच जल संगा॥
साधु असाधु सदन सुक सारीं।
सुमिरहिं राम देहिं गनि गारीं॥
अर्थ:- पवन के संग से धूलि आकाश की ओर उठती है और ज्वार के संग से वही मिट्टी में मिल जाती है। साधु के घर के तोते राम-राम जपते हैं और असाधु के घर के तोते गिन-गिनकर गाली देते हैं।
सुमति कुमति सब कें उर रहहीं।
नाथ पुरान निगम अस कहहीं॥
जहाँ सुमति तहँ संपति नाना।
जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना॥
अर्थ : पुराण और वेद कहते हैं कि सुबुद्धि और कुबुद्धि के हृदय में निवास करते हैं, जहाँ अच्छी बुद्धि होती है, वहाँ विभिन्न प्रकार के धन सुख और समृद्धि होते हैं और जहाँ बुरी बुद्धि होती है, वहाँ विभिन्न प्रकार विपत्तियाँ धुल होते हैं।।
जेहि के जेहि पर सत्य सनेहू ।
सो तेहि मिलय न कछु सन्देहू।।
जिस पर जिसका विश्वास होता है उसको मिलकर ही रहता है इसमें कोई संदेह नहीं है ।
एहि तन कर फल बिषय न भाई।
स्वर्गउ स्वल्प अंत दुखदाई॥
नर तनु पाइ बिषयँ मन देहीं।
पलटि सुधा ते सठ बिष लेहीं॥
अर्थ : इस शरीर को जीतने का फल संसार का भोग नहीं है स्वर्ग का भोग भी बहुत कम है और अंत में दुख होगा। इसलिए जो मनुष्य शरीर पाकर विषयों में मन लगाते हैं, वे मूर्ख अमृत के बदले विष पीते हैं॥
सो धन धन्य प्रथम गति जाकी।
धन्य पुन्य रत मति सोई पाकी॥
धन्य घरी सोई जब सतसंगा।
धन्य जन्म द्विज भगति अभंगा॥
धन्य है वह धन जिसकी पहली गति है, धन्य है वह बुद्धि जो पुण्य को समर्पित है। धन्य है वह समय जब सत्संग होता है और धन्य है वह जन्म जब ब्रह्म की निरन्तर भक्ति होती है।
ह्रदय बिचारति बारहिं बारा,
कवन भाँति लंकापति मारा।
अति सुकुमार जुगल मम बारे,
निशाचर सुभट महाबल भारे।।
तात्पर्य : जब श्री रामचन्द्रजी रावण का वध कर अयोध्या लौटते हैं तो माता कौशल्या बार-बार हृदय में विचार कर रही होती हैं कि उन्होंने रावण का वध कैसे किया होगा। मेरे दोनों बच्चे बहुत कोमल हैं और दैत्य योद्धा बहुत बलवान थे। इन सबके अलावा भगवान राम को लक्ष्मण और सीता के साथ देखकर मन परमानंद में लीन हो जाता है।।
गुर बिनु भव निध तरइ न कोई।
जौं बिरंचि संकर सम होई॥
अर्थ: गुरु के बिना कोई भी व्यक्ति भवसागर को पार नहीं कर सकता भले ही वह ब्रह्मा जी और शंकर जी के बराबर क्यों न हो। गुरु का हमारे जीवन में बहुत महत्व होता है। गुरु के बिना ज्ञान संभव नहीं है और ज्ञान के बिना भगवान की प्राप्ति नहीं हो सकती है।
भक्ति हीन गुण सब सुख कैसे,
लवण बिना बहु व्यंजन जैसे।
भक्ति हीन सुख कवने काजा,
अस बिचारि बोलेऊं खगराजा॥
अर्थ : बिना भक्ति के गुण और सारे सुख वैसे ही नीरस हैं, जैसे नमक के बिना अनेक व्यंजन। बिना भजन के सुख किस काम का? यह सोचकर राजा कागभुशुण्डि जी ने कहा: – यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं, तो हे शरणागतों के दाता, दया के सागर और सुख के धाम, कृपया मुझे अपनी भक्ति प्रदान करें।
एक पिता के बिपुल कुमारा,
होहिं पृथक गुन शीला अचारा।
कोउ पंडित कोउ तापस ज्ञाता,
कोउ धनवंत वीर कोउ दाता॥
तात्पर्य : प्रभु श्री रामचन्द्र जी ने कहा- एक ही पिता के अनेक पुत्र हैं, परन्तु वे गुण, आचरण में भिन्न-भिन्न हैं।
कोउ सर्वज्ञ धर्मरत कोई,
सब पर पितहिं प्रीति सम होई।
कोउ पितु भक्त बचन मन कर्मा,
सपनेहुं जान न दूसर धर्मा॥
अर्थ : कुछ सर्वज्ञ हैं और कुछ धर्म में लगे हुए हैं, लेकिन पिता का प्यार सभी के लिए समान है। यदि कोई पुत्र मन, वचन और कर्म से पिता का भक्त है और स्वप्न में भी किसी अन्य धर्म को नहीं जानता है,
सो सूत प्रिय पितु प्रान समाना,
यद्यपि सो सब भांति अज्ञाना।
एहि विधि जीव चराचर जेते,
त्रिजग देव नर असुर समेते॥
अर्थ : पुत्र अपने पिता को प्राणों के समान प्रिय होता है चाहे वह सब प्रकार से मूर्ख ही क्यों न हो। भगवान श्री रामचन्द्र जी कह रहे हैं- इसी प्रकार तीनों लोकों में देवता, मनुष्य और दैत्य सहित सभी जीव रहते हैं। मेरी कृपा उन सबमें समान रूप से रहती है।
अखिल विश्व यह मम उपजाया,
सब पर मोहिं बराबर दाया।
तिन्ह महं जो परिहरि मद माया,
भजहिं मोहिं मन वचन अरु काया॥
अर्थ : यह सारा संसार मेरे द्वारा बनाया गया है और मैं सभी पर समान रूप से दया करता हूं, जो प्राणी मान और भ्रम को छोड़कर मन, वाणी और शरीर से मेरी पूजा करते हैं, वे सेवक मुझे प्राणों के समान प्रिय हैं।
नहिं दरिद्र सम दुख जग माहीं,
संत मिलन सम सुख कछु नाहीं।
पर उपकार बचन मन काया,
संत सहज सुभाव खग राया॥
अर्थ : संसार में दरिद्रता के समान कोई दूसरा दुख नहीं, संत समागम के समान कोई सुख नहीं है। हे पक्षीराज! वचन मन और शरीर से परोपकार करना संतो का यह स्वभाव है।
संत सहहिं दुख परहित लागी,
पर दुख हेतु असंत अभागी।
भूर्ज तरु सम संत कृपाला,
परहित निति सह बिपति बिसाला॥
अर्थ : संत दूसरों के लिए कष्ट उठाते हैं अभागे नीच दूसरों को पीड़ा पहुँचाने के लिए कष्ट उठाते हैं। संत भोजपत्र के समान होते हैं जो दूसरों के कल्याण के लिए नित्य विपत्तियों को सहते रहते हैं।
श्याम गात राजीव बिलोचन,
दीन बंधु प्रणतारति मोचन।
अनुज जानकी सहित निरंतर,
बसहु राम नृप मम उर अन्दर॥
अर्थ: तुलसीदास जी कहते हैं कि हे श्रीराम ! आप श्यामल शरीर, कमल के समान नेत्र वाले, दीनबंधु और संकट को हरने वाले हैं। हे राजा रामचंद्रजी आप निरंतर लक्ष्मण और सीता सहित मेरे हृदय में निवास कीजिए।
धन्य देश सो जहं सुरसरी।
धन्य नारी पतिव्रत अनुसारी॥
धन्य सो भूपु नीति जो करई।
धन्य सो द्विज निज धर्म न टरई॥
अर्थ : वह देश धन्य है जहां गंगा जी बहती हैं। वह स्त्री धन्य है जो पतिव्रत धर्म का पालन करती है। वह राजा धन्य है जो न्याय करता है और वह ब्राह्मण धन्य है जो अपने धर्म से नहीं डिगता है।
अगुण सगुण गुण मंदिर सुंदर,
भ्रम तम प्रबल प्रताप दिवाकर।
काम क्रोध मद गज पंचानन,
बसहु निरंतर जन मन कानन।।
अर्थ: तुलसीदास जी कहते हैं कि हे गुणों के मंदिर आप सगुण और निर्गुण दोनों रूप में है। आपका प्रबल प्रताप सूर्य के प्रकाश के समान काम, क्रोध, मद और अज्ञानरूपी अंधकार का नाश करने वाले हैं। आप अपने भक्तों के मन रूपी वन में निवास करना चाहिए।
मोहमूल बहु सूल
प्रद त्यागहु तुम अभिमान।
भजहु राम रघुनायक कृपा सिंधु भगवान॥
अर्थ : मोह करना जिन व्यक्तियों का मूल है अभिमान करना स्वभाव है ऐसे व्यक्तियों को भगवान राम की शरण में जाना चाहिए।
उत्तम आर्टिकल शेयर करने के लिए आपका ह्रदय से धन्यवाद।
बहुत अच्छा लगा पड़ कर
रामायण की चौपाई
Sansar ke harek bat ramayan ji me likhi yaga hai Jai shree Ram
Bahut hi Sundar Laga padh kar anandaba man prafullit Ho Gaya likhane ke liye बहुत-बहुत dhanyvad ham aapka aabhar vyakt karte Hain man shant ho gaya hai
भाव विमुख कर देने वाली चौपाइयां