Kabir Ke Dohe In Hindi
Kabir Ke Dohe उन तमाम कुरीतियों और असमानताओं पर कड़ा प्रहार करते है कबीर के दोहे आज भी जनमानस में बहुत लोकप्रिय है।
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नाम Name कबीर
पुरा नाम Full Name कबीर साहेब जी
जन्म तारीख Date of Birth 1398 में
जन्म स्थान Place of Birth काशी
मृत्यु Death 1468 मगहर में उत्तर प्रदेश,
नागरिकता Nationality भारतीय
पारिवारिक जानकारी Family Information –
पिता का नाम Father’s Name ज्ञात नहीं
नीरू (पालन पोषण )
माता का नाम Mother’s Name ज्ञात नहीं
नीमा (पालन पोषण )
गुरु का नाम रामानंद
अन्य जानकारी Other Information
Kabir Ke Dohe In Hindi कबीर के दोहे अर्थ सहित
चिंता ऐसी डाकिनी, काटि करेजा खाएवैद्य बिचारा क्या करे, कहां तक दवा खवाय॥
अन्य पढ़े रहीम के दोहे
गुरु गोविंद दोउ खड़े, काके लागूं पाँय ।बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो मिलाय॥
अर्थात: कबीर दास जी इस दोहे में कहते हैं कि यदि गुरु और भगवान हमारे सामने एक साथ खड़े हों, तो आप किसके चरण स्पर्श करेंगे? गुरु ने हमें अपने ज्ञान के साथ भगवान से मिलने का रास्ता दिखाया है, इसलिए गुरु की महिमा भगवान के ऊपर है और हमें गुरु के चरण स्पर्श करने चाहिए।
आगि जो लगी समुद्र में, धुआं न प्रगट होए।की जाने जो जरि मुवा, जाकी लाई होय।।
अर्थात:फिर इससे बचने का उपाय क्या है? मन को चिंता रहित कैसे किया जाए? कबीर कहते हैं, सुमिरन करो यानी ईश्वर के बारे में सोचो और अपने बारे में सोचना छोड़ दो। या खुद नहीं कर सकते तो उसे गुरु के जिम्मे छोड़ दो। तुम्हारे हित-अहित की चिंता गुरु कर लेंगे। तुम बस चिंता मुक्त हो कर ईश्वर का स्मरण करो। और जब तुम ऐसा करोगे, तो तुरत महसूस करोगे कि सारे कष्ट दूर हो गए हैं।
करु बहियां बल आपनी, छोड़ बिरानी आस।जाके आंगन नदिया बहै, सो कस मरै पियास।।
अर्थात मनुष्य को अपने आप ही मुक्ति के रास्ते पर चलना चाहिए। कर्म कांड और पुरोहितों के चक्कर में न पड़ो। तुम्हारे मन के आंगन में ही आनंद की नदी बह रही है, तुम प्यास से क्यों मर रहे हो? इसलिए कि कोई पंडित आ कर बताए कि यहां से जल पी कर प्यास बुझा लो। इसकी जरूरत नहीं है। तुम कोशिश करो तो खुद ही इस नदी को पहचान लोगे।
ऐसी वाणी बोलिए मन का आप खोये ।
औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होए ।
अर्थात इंसान को ऐसी भाषा बोलनी चाहिए जो सुनने वाले के मन को बहुत अच्छी लगे। ऐसी भाषा दूसरे लोगों को तो सुख पहुँचाती ही है, इसके साथ खुद को भी बड़े आनंद का अनुभव होता है।
अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप।
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।।
अर्थात ज्यादा बोलना अच्छा नहीं होता सुखी और स्वस्थ रहना है तो अतियों से बचो। किसी चीज की अधिकता ठीक नहीं होती।
बड़ा भया तो क्या भया, जैसे पेड़ खजूर ।
पंथी को छाया नहीं फल लागे अति दूर । ।
अर्थात खजूर का पेड़ बेशक बहुत बड़ा होता है लेकिन न तो यह किसी को छाया देता है और फल भी बहुत ऊंचाई पर दिखाई देता है। इसी तरह, अगर आप किसी का भला नहीं कर पा रहे हैं, तो ऐसे बड़े होने से कोई फायदा नहीं है।
कबिरा यह मन लालची, समझै नहीं गंवार।
भजन करन को आलसी, खाने को तैयार।।
कबिरा मन ही गयंद है, आंकुष दे दे राखु ।
विष की बेली परिहरी, अमरित का फल चाखु ।।
अर्थात यह मन लोभी और मूर्ख हैै। यह तो अपना ही हित-अहित नहीं समझ पाता। इसलिए इस मन को विचार रूपी अंकुश से वश में रखो, ताकि यह विष की बेल में लिपट जाने के बदले अमृत फल को खाना सीखे।
Sant Kabir ke Dohe
माटी कहे कुमार से, तू क्या रोंदे मोहे ।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रोंदुंगी तोहे।।
अर्थात जब कुम्हार बर्तन बनाने के लिए मिट्टी को रौंद रहा था, तो मिट्टी कुम्हार से कहती है – तुम मुझे रौंद रहे हो, एक दिन आएगा जब तुम इस मिट्टी में घुल जाओगे और मैं तुम्हें रौंद दूंगा।
तिनका कबहुँ ना निन्दिये, जो पाँवन तर होय।
कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय। ।
अर्थात कभी भी एक छोटे से तिनके की भी निंदा न करें जो आपके पैरों के नीचे दब जाता है। दर्द क्या होता है अगर वह धब्बा आँख में चला जाए
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय ।
जो मन देखा आपना, मुझ से बुरा न कोय।।
अर्थात मैं अपना पूरा जीवन दूसरों की बुराइयों को देखने में बिता रहा हूं, लेकिन जब मैंने अपने दिमाग में देखा, तो मैंने पाया कि मेरे लिए इससे बुरा कोई नहीं है। मैं सबसे ज्यादा स्वार्थी और दुष्ट हूं। हम दूसरों की बुराइयों को बहुत देखते हैं, लेकिन अगर आप अपने अंदर देखें, तो आप पाएंगे कि हमसे बुरा कोई व्यक्ति नहीं है।
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब ।
पल में परलय होएगी, बहुरि करेगा कब।।
अर्थात हमारे पास बहुत कम समय है, वह काम करें जो आपको कल करना है, और वह करें जो आप आज करना चाहते हैं, क्योंकि तबाही एक पल में होगी, आप अपना काम कब करेंगे
जहाँ दया तहा धर्म है, जहाँ लोभ वहां पाप ।
जहाँ क्रोध तहा काल है, जहाँ क्षमा वहां आप।।
अर्थात जहाँ दया है, वहाँ धर्म है और जहाँ लालच है वहाँ पाप है, और जहाँ क्रोध है वहाँ सर्वनाश है और जहाँ क्षमा है वहाँ ईश्वर का वास है।
जल में बसे कमोदनी, चंदा बसे आकाश ।
जो है जा को भावना सो ताहि के पास।।
अर्थात कमल पानी में खिलता है और चंद्रमा आकाश में रहता है। लेकिन जब चंद्रमा की छवि पानी में चमकती है, तो कबीर दास जी कहते हैं कि कमल और चंद्रमा के बीच की दूरी के बावजूद, दोनों कितने करीब हैं। पानी में चंद्रमा का परावर्तन ऐसा लगता है मानो चंद्रमा स्वयं कमल पर आ गया है। इसी तरह, जब कोई व्यक्ति भगवान से प्यार करता है, तो वह भगवान खुद उसके पास आता है।
जाती न पूछो साधू की, पूछ लीजिये ज्ञान ।
मोल करो तलवार का, पड़ा रहने दो म्यान।।
अर्थात ऋषि से उनकी जाति के बारे में न पूछें, बल्कि उनसे ज्ञान के बारे में बात करें, उनसे ज्ञान की तलाश करें। यदि आप खरीदना चाहते हैं, तो तलवार करें, स्कैबार्ड को झूठ बोलने दें
कबीरा खड़ा बाज़ार में, मांगे सबकी खैर।
ना काहू से दोस्ती,न काहू से बैर।।
अर्थात किसी के साथ कोई अत्यधिक मित्रता नहीं होनी चाहिए, न ही अत्यधिक घृणा।
माया मरी न मन मरा, मर मर गये शरीर।
आषा तृष्णा ना मरी, कह गये दास कबीर।।
अर्थात शरीर, मन, भ्रम सभी नष्ट हो जाते हैं, लेकिन मन में उत्पन्न होने वाली आशा और लालसा कभी नष्ट नहीं होती है।
सांई ते सब होत है, बन्दे से कुछ नाहिं।
राई से पर्वत करे, पर्वत राई माँहि।।
अर्थात ईश्वर सर्वशक्तिमान है, वह कुछ भी करने में सक्षम है लेकिन आदमी कुछ नहीं कर सकता।
Kabir ke Dohe with Meaning
मल मल धोए शरीर को, धोए न मन का मैल ।
नहाए गंगा गोमती, रहे बैल के बैल ।।
अर्थात कोई व्यक्ति अपने मन का मेल साफ़ नहीं करता तब तक वो कभी एक सज्जन नहीं बन सकता फिर चाहे वो कितना ही गंगा और गोमती जैसे पवित्र नदी में नाहा ले वो मुर्ख के मुर्ख ही रहेगा।
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।।
इस दुनिया में न जाने कितने लोग आये और मोटी मोटी किताबे पढ़ कर चले गए पर कोई भी सच्चा ज्ञानी नहीं बन सका सच्चा ज्ञानी वही है, जो प्रेम का ढाई अक्छर पढ़ा हो
दुःख में सुमिरन सब करे, सुख में करै न कोय ।जो सुख मे सुमीरन करे, तो दुःख काहे को होय ।।
अगर हम अच्छे समय में, यानी अच्छे समय में सुख मे सुमीरन करने रहने लगेंगे, तो दुःख कभी नहीं आएगा।
साईं इतना दीजीए, जामे कुटुंब समाए
मै भी भूखा न रहूं, साधू न भूखा जाए।
कबीर दास जी कहते हैं हे प्रभु, मुझे बहुत सारा धन और संपत्ति नहीं चाहिए, मुझे बस वही चाहिए जो मेरा परिवार अच्छा खा सके। न मैं भूखा रहूं और न मेरे घर से कोई साधू भूखा जाये ।
बैद मुआ रोगी मुआ, मुआ सकल संसार।
एक कबीरा ना मुआ, जेहि के राम आधार॥
कबीर दास जी कहते हैं बीमार हो या डॉक्टर, दोनों की मौत तय है। इस दुनिया में हर व्यक्ति की मृत्यु अवश्य होगी, लेकिन जिसे राम का साथ मिला वह अमर हो गया।
कबीरा तेरे जगत में, उल्टी देखी रीत ।
पापी मिलकर राज करें, साधु मांगे भीख ।
कबीर दास जी कहते हैं इस जगत की उलटी रीति है पापी लोग राज करते है साधु लोग भिक मांगते हैमाला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर,
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।
कबीर दास जी कहते हैं व्यक्ति अपने हाथ में मोतियों की माला लंबे समय तक फेरता है, लेकिन उसके मन की मनोदशा नहीं बदलती, उसके मन की गति शांत नहीं होती।
चलती चक्की देख कर, दिया कबीरा रोए
दुई पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोए।
चलती चाकी देखकर (लोगो की जिंदगी चलती देखकर), कबीर साहब को रोना आता है। क्यों की इस चलने वाली जिंदगी में सब को एक दिन छोड़कर जाना है। जिंदगी और मौत ये दो पाटो(चक्की के दो पत्थर) के बीच में सभी को पिस पिस कर एक दिन ख़त्म होना है। कुछ लोग इस सत्य को जानकर भी अज्ञानी हो जाते हैं।
जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान,
मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान।
कबीर दास कहते हैं कि संतों की जाति मत पूछो, पूछना हो तो उनका ज्ञान पूछो। तलवार खरीदते समय उस समय केवल तलवार का ही व्यापार करें। म्यान रहने दो। यह मूल्यवान नहीं है।
तिनका कबहुँ ना निन्दिये, जो पाँवन तर होय,
कबहुँ उड़ी ऑखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय।
कबीर दास कहते हैं कभी भी तिनके का तिरस्कार नहीं करना चाहिए, जो हमेशा आपके पैरों के नीचे होता है, लेकिन जब भी यह उड़ता है और आपकी आंखों में गिरता है, तो यह बहुत दुख देता है।
कबीर सोई पीर है, जो जाने पर पीड़
जो पर पीड़ न जानता, सो काफ़िर बे-पीर
कबीर कहते हैं कि वह एक आदर्श पुरुष (पीर) है जो दूसरों के दर्द (पर-पीर) को जान और महसूस कर सकता है। लेकिन जो दूसरों के दुख को नहीं समझ सकता वह पूरी तरह से विकृत और खून का प्यासा (काफिर-बेपीर) है।
Kabir ke Dohe Arth Sahit
नहाये धोये क्या हुआ, जो मन मैल न जाए।
मीन सदा जल में रहे, धोय बास न जाए।
कबीर दास जी कहते हैं कि आप कितना भी नहाएं इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन अगर मन साफ नहीं है तो नहाने से क्या फायदा, जैसे मछली तो हमेशा पानी में रहती है, लेकिन फिर भी साफ नहीं होती, मछली में तेज बदबू आती है ।
फल कारन सेवा करे, करे ना मन से काम।
कहे कबीर सेवक नहीं, चाहे चौगुना दाम।।
कबीरदास जी कहते हैं कि जो व्यक्ति अपने मन में इच्छा रखकर स्वार्थवश सेवा करता है, वह सेवक नहीं है क्योंकि उसे सेवा के बदले कीमत चाहिए। इसकी कीमत भी चौगुनी है।
ढोंगी मित्र न पालिये सर्पिल जाकी धार,
नफरत भीतर से करे जख्मी करे हज़ार !!
कबीरदास जी कहते हैं कि ढोंगी मित्र नहीं बनाने चाहिए वह मन से आपसे नफरत करते है और हज़ारो जख्म पहुंचाने की कोशिश करते है।
जैसा भोजन खाइये, तैसा ही मन होय ।
जैसा पानी पीजिये, तैसी वाणी होय ॥
कबीर दास कहते हैं कि जैसा आप खाते हैं, वैसा ही आपका मन भी होता है, और जब आप पानी पीते हैं, तो आपकी वाणी अर्थात शुद्ध सात्विक भोजन और पवित्र जल से मन और वाणी शुद्ध हो जाती है
तन की सौ सौ बनदिशे मन को लगी ना रोक
तन की दो गज कोठरी मन के तीनो लोक
निंदक नियरे राखिये, आँगन कुटी छवाय ।
बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।।
कबीर दास कहते हैं कि जो हमारी निन्दा करे उसे अपने पास रखना चाहिए। वह बिना साबुन और पानी के हमारे दोषों को बताकर हमारे स्वभाव को शुद्ध करता है।
कबीर सुता क्या करे, जागी न जपे मुरारी |
एक दिन तू भी सोवेगा, लम्बे पाँव पसारी ।।
कबीर दास जी कहते हैं कि आप हमेशा क्यों सोते हैं, उठ और भगवान की भक्ति कर अन्यथा एक दिन आप अपने लंबे पैर फैलाकर हमेशा के लिए सो जाएंगे।
ऊँचे कुल का जनमिया, करनी ऊँची न होय ।
सुवर्ण कलश सुरा भरा, साधू निंदा होय ।
कबीर दास जी कहते हैं कि उनका जन्म एक उच्च कुल में हुआ था, लेकिन कर्म उच्च न हो तो ऐसा ही हुआ मानो सोने का घड़ा जहर से भरा हुआ हो, वह हर तरफ से निंदा का पात्र होता है।
दोस पराए देखि करि, चला हसन्त हसन्त,
अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत।
अर्थ: मनुष्य के स्वभाव में यह है कि जब वह दूसरों के दोषों पर हंसता है, तो उसे अपने स्वयं के दोष याद नहीं रहते ।
जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ,
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।
अर्थ: कबीर दास कहते हैं कोशिश करने वालों को सब कुछ मिलता है, जैसे मेहनती गोताखोर गहरे पानी में जाकर कुछ जरूर लाता है। लेकिन कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो कोशिश नहीं करते हैं और कुछ नहीं पाते हैं।
बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि,
हिये तराजू तौलि के, तब मुख बाहर आनि।
अर्थ: कबीर दास कहते हैं यदि कोई मीठी बोली बोलना जानता है, तो वह जानता है कि वाणी एक अमूल्य रत्न है। इसलिए आप शब्दो का प्रयोग सोच समझ कर करना चाहिए ।
Kabir ke Dohe in Hindi with meaning
अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप,
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।
अर्थ : कबीर दास कहते हैं न अधिक बोलना ठीक है और न ही अधिक चुप रहना अच्छा है। जैसे बहुत अधिक बारिश अच्छी नहीं होती है और बहुत अधिक धूप भी अच्छी नहीं होती है।
दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार,
तरुवर ज्यों पत्ता झड़े, बहुरि न लागे डार।
अर्थ: इस संसार में मनुष्य का जन्म कठिन है। यह मानव शरीर बार-बार उसी तरह नहीं मिलता जैसे पेड़ से पत्ता गिर जाए, डाल पर दोबारा वापस नहीं लकता ।
कबीरा खड़ा बाज़ार में, मांगे सबकी खैर,
ना काहू से दोस्ती,न काहू से बैर।
हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना,
आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मुए, मरम न कोउ जाना।
अर्थ: कबीर कहते हैं कि हिंदू राम के भक्त हैं और तुर्क (मुसलमान) रहमान से प्यार करते हैं। इस बात पर वे दोनों लड़े और मौत के मुंह तक गए, फिर भी दोनों में से किसी को भी सच्चाई का पता नहीं चला।
माँगन मरण समान है, मति माँगो कोई भीख
माँगन ते मारना भला, यह सतगुरु की सीख।
अर्थ: कबीर दास जी कहा करते थे कि मांगना मरने के समान है, इसलिए कभी किसी से कुछ मत मांगो।
कहत सुनत सब दिन गए, उरझि न सुरझ्या मन।
कही कबीर चेत्या नहीं, अजहूँ सो पहला दिन।
अर्थ: कबीर कहते हैं सुनते-सुनते दिन-ब-दिन बीतता गया, लेकिन यह मन भ्रमित होकर हल न हो सका। कबीर कहते हैं कि अब भी वह मन होश में नहीं आता। आज भी उनकी हालत पहले दिन जैसी ही है।
कबीर लहरि समंद की, मोती बिखरे आई।
बगुला भेद न जानई, हंसा चुनी-चुनी खाई।
अर्थ: कबीर कहते हैं कि मोती आकर समुद्र की लहर पर बिखर गए। बगुला उनके रहस्य को नहीं जानता, लेकिन हंस उन्हें चुन-चुन कर खा रहा है। इसका मतलब यह हुआ कि किसी भी चीज की अहमियत सिर्फ पारखी ही जानते हैं।
जब गुण को गाहक मिले, तब गुण लाख बिकाई।
जब गुण को गाहक नहीं, तब कौड़ी बदले जाई।
अर्थ: कबीर कहते हैं कि जब कोई ग्राहक गुणवत्ता के लिए परीक्षण करता पाया जाता है, तो गुणवत्ता की कीमत होती है। लेकिन जब वह ग्राहक उपलब्ध नहीं होता है, तो गुणवत्ता गायब हो जाती है।
कबीर कहा गरबियो, काल गहे कर केस।
ना जाने कहाँ मारिसी, कै घर कै परदेस।
अर्थ: कबीर कहते हैं हे मानव! आपको किस बात पर गर्व है कि काल अपने हाथों में बाल पकड़ रहा है। मुझे नहीं पता कि वह उसे देश में या विदेश में कहां मारने जा रहा है।
पानी केरा बुदबुदा, अस मानुस की जात।
एक दिना छिप जाएगा,ज्यों तारा परभात।
अर्थ: कबीर ने कहा कि जैसे पानी के बुलबुले, जैसे मानव शरीर नाजुक होता है, जैसे तारे भोर में गायब हो जाते हैं, वैसे ही यह शरीर भी एक दिन नष्ट हो जाएगा
Sant Kabir ke Dohe in Hindi
हाड़ जलै ज्यूं लाकड़ी, केस जलै ज्यूं घास।
सब तन जलता देखि करि, भया कबीर उदास।
अर्थ: यह नश्वर मानव शरीर अंत में लकड़ी की तरह जलता है और बाल घास की तरह जलते हैं। अपने पूरे शरीर को इस तरह जलता देख कबीर का मन इस अंत में उदासी से भर जाता है।
जो उग्या सो अन्तबै, फूल्या सो कुमलाहीं।
जो चिनिया सो ढही पड़े, जो आया सो जाहीं।
अर्थ:- इस संसार का नियम है कि जो आया है वह जायेगा। जो उग आया है वह मुरझा जाएगा। जो बना था वह गिर जाएगा और जो आ गया वह चला जाएगा।
झूठे सुख को सुख कहे, मानत है मन मोद।
खलक चबैना काल का, कुछ मुंह में कुछ गोद।
अर्थ: कबीर कहते हैं क्या तुम झूठी खुशी को खुशी कहते हो और अपने दिल में खुशी रखते हो देखो, यह सारा संसार मृत्यु के भोजन के समान है
ऐसा कोई ना मिले, हमको दे उपदेस।
भौ सागर में डूबता, कर गहि काढै केस।
अर्थ: कबीर सांसारिक लोगों के लिए दुखी होकर कहते हैं कि उन्हें उपदेश देने वाला कोई मार्गदर्शक नहीं मिला, और संसार के सागर में डूबते हुए, उन्होंने इन जीवों को अपने हाथों से उनके बालों को पकड़कर बाहर निकाला होगा।
संत ना छाडै संतई, जो कोटिक मिले असंत
चन्दन भुवंगा बैठिया, तऊ सीतलता न तजंत।
अर्थ : सज्जन भले ही लाखों दुष्टों को ग्रहण कर लें, वह अपने अच्छे स्वभाव को नहीं छोड़ते हैं। चंदन के पेड़ के चारों ओर सांपों को लपेटा जाता है, लेकिन यह अपनी सीतलता नहीं छोड़ता है।
माटी कहे कुमार से, तू क्या रोंदे मोहे ।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रोंदुंगी तोहे ।
हिंदी अर्थ कबीरदास जी कहते हैं कि मिट्टी कुमार से कहती है कि तुम मुझे क्या रोंदे 1 दिन ऐसा आएगा कि मैं तुम्हें रोंदे दूंगी प मिट्टी का तात्पर्
माटी का एक नाग बनाके, पुजे लोग लुगाया
जिंदा नाग जब घर मे निकले, ले लाठी धमकाया
हिंदी अर्थ कबीरदास जी कहते हैं कि लोग मिट्टी का सांप बनाकर उसकी पूजा करते हैं लेकिन जब जिंदा सांप व्यक्तियों घर पर दिखाई देता है तो लोग उसे लाठियों से मार डालते हैं
यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान ।
शीश दियो जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान ।
हिंदी अर्थ कबीर दास जी यहां पर गुरु की महिमा का वर्णन करते हैं शरीर एक विष के समान है और गुरु अमृत के समान है अगर हम अपना सर अपने गुरु के चरणों में अर्पित करते तो भी वह भी कम होगा
सब धरती काजग करू, लेखनी सब वनराज ।
सात समुद्र की मसि करूँ, गुरु गुण लिखा न जाए
हिंदी अर्थ इस दोहे में कबीर दास जी गुरु की महिमा का वर्णन करते हुए कहते हैं पूरी पृथ्वी को कागज मान लिया जाए सभी पेड़ पौधों को कलम मान लिया जाए सभी महासागरों को स्याही मान लिया जाए इसके उपरांत भी गुरु की महिमा का वर्णन करना संभव नहीं है
पानी केरा बुदबुदा, अस मानस की जात ।
देखत ही छुप जाएगा है, ज्यों सारा परभात ।
हिंदी अर्थ कबीरदास जी कहते हैं कि मनुष्य की इच्छाएं पानी में आने वाले बुलबुले के समान है मनुष्य की इच्छाएं पल भर में बनती है और फिर बिगड़ती हैं जब आपको सच्चा गुरु मिल जाएगा तो यह इच्छा खत्म हो जाए
अज्ञानी सो कहिये का, कहत कबीर लजाय
अंधे आगे नाचते, कला अकारथ जाये।
कबीरदास जी कहते हैं कि इसी अज्ञानी व्यक्ति को समझाने में अपने आप को भी शर्म लगती है यह ठीक उसी तरह है अंधे के आगे नाचना अपनी कला का अपमान करना है अंधे के आगे नाचने का अर्थ है कि अपनी कला का अपमान करना क्योंकि वह आपके नृत्य को देखी नहीं सकता इसी तरह अज्ञानी को समझाना भी बेकार वह आपकी बात कभी नहीं समझेगा
ज्ञानी युक्ति सुनाईया, को सुनि करै विचार
सूरदास की स्त्री, का पर करै सिंगार।
ज्ञानी व्यक्ति को समझाना उस पर सुनकर विचार करना चाहिए परंतु एक अंधे की पत्नी सज धज कर किसके लिए सिंगार करेगी।
Kabir Ke Dohe 61 to 70
ज्ञानी भुलै ज्ञान कथि निकट रहा निज रुप
बाहिर खोजय बापुरै, भीतर वस्तु अनूप।
कबीरदास जी कहते हैं अज्ञानी हमेशा अपने ज्ञान का बखान करता है प्रभु हमेशा व्यक्ति के पास ही रहते हैं फिर भी एक अज्ञानी भक्त उसकी तलाश में जगह-जगह भटकता रहता ह।
वचन वेद अनुभव युगति आनन्द की परछाहि
बोध रुप पुरुष अखंडित, कहबै मैं कुछ नाहि।
कबीरदास जी कहते हैं वेदों के वचन अनुभव ईश्वर की प्राप्ति आनंद की परछाई की तरह हैं ।
ज्ञानी मूल गंवायीयाॅ आप भये करता
ताते संसारी भला, सदा रहत डरता।
कबीरदास जी कहते हैं वह व्यक्ति जिन्होंने अपना ज्ञान खो दिया मैं भगवान के स्वरूप को नहीं जान सकता हूं।
ज्यों गूंगा के सैन को, गूंगा ही पहिचान
त्यों ज्ञानी के सुख को, ज्ञानी हबै सो जान।
कबीरदास जी कहते हैं गूंगे की इशारे तो गूंगा ही समझ सकता है ठीक उसी तरह आत्मज्ञानी व्यक्ति के आनंद को आत्म ज्ञानी व्यक्ति जान सकता है।
आतम अनुभव ज्ञान की, जो कोई पुछै बात
सो गूंगा गुड़ खाये के, कहे कौन मुुख स्वाद।
कबीरदास जी कहते हैं आत्मा के अनुभव को अर्थात आध्यात्मिक ज्ञान को बताना बहुत कठिन होता है यह ठीक उसी तरह होता है एक गूंगा व्यक्ति गुड़ खाने के बाद उसके स्वाद को नहीं बता सकता।
अंधे मिलि हाथी छुवा, अपने अपने ज्ञान
अपनी अपनी सब कहै, किस को दीजय कान।
अनेक अंधों ने हाथी को छू कर देखा और अपने अपने अनुभव का बखान किया। सब अपनी अपनी बातें कहने लगें-अब किसकी बात का विश्वास किया जाये।
आतम अनुभव सुख की, जो कोई पुछै बात
कई जो कोई जानयी कोई अपनो की गात।
कबीरदास जी कहते हैं आत्मिक सुख को अगर कोई व्यक्ति इसके विषय में पूछता है उसे बताना संभव नहीं है यह सुख व्यक्ति अपने आत्मन बहुत ही जान सकता।
आतम अनुभव जब भयो, तब नहि हर्श विशाद
चितरा दीप सम ह्बै रहै, तजि करि बाद-विवाद।
कबीरदास जी कहते हैं जब्ती की आत्मा में परमात्मा के अनुभव होती है तब व्यक्ति के जीवन में दुख सुख सभी मर जाता है उसका मन दीपक के समान स्थिर हो जाता है उसके मन के सभी विकार मिट जाते हैं।
ज्ञानी तो निर्भय भया, मानै नहीं संक
इन्द्रिन केरे बसि परा, भुगते नरक निशंक।
ज्ञानी हमेशा निर्भय रहता है। कारण उसके मन में प्रभु के लिये कोई शंका नहीं होता। लेकिन यदि वह इंद्रियों के वश में पड़ कर बिषय भोग में पर जाता है तो उसे निश्चय ही नरक भोगना पड़ता है।
भरा होये तो रीतै, रीता होये भराय
रीता भरा ना पाइये, अनुभव सोयी कहाय।
कबीरदास जी कहते हैं एक निर्धन में कोई धनी हो सकता है और धनी व्यक्ति निर्धन हो सकता है लेकिन जब परमात्मा काबा सातवां में हो जाता है तब उसका हृदय कभी भी खाली नहीं रहता है।
Kabir Ke Dohe 71 to 80
लिखा लिखि की है नाहि, देखा देखी बात
दुलहा दुलहिन मिलि गये, फीकी परी बरात।
कबीरदास जी कहते हैं आत्मा के अनुभव को कभी भी लिखकर नहीं बताया जा सकता है।
बूझ सरीखी बात हैं, कहाॅ सरीखी नाहि
जेते ज्ञानी देखिये, तेते संसै माहि।
आध्यात्मिक की बातें अध्यात्मिक ज्ञान समझने की चीजें यह कहने से नहीं जामा जा सकता है यह आत्मा के अनुभव के द्वारा ही महसूस किया जा सकता है।
जाके जिव्या बन्धन नहीं, हृदय में नहीं साँच ।
वाके संग न लागिये, खाले वटिया काँच ॥
कबीरदास जी कहते हैं कि जिस व्यक्ति की वाणी पर नियंत्रण नहीं है और मन में सच्चाई नहीं है ऐसे व्यक्तियों का साथ छोड़ देना चाहिए क्योंकि ऐसे लोगों को साथ रहेगा तो कुछ नहीं प्राप्त होगा
सुमरण से मन लाइए, जैसे पानी बिन मीन ।
प्राण तजे बिन बिछड़े, संत कबीर कह दिन ॥
कबीरदास जी कहते हैं कि हम ईश्वर में ध्यान इस तरह लगाना चाहिए जिसे मछली पानी का संबंध होता है बिना पानी के मछली अपने प्राण त्याग देती है
कहना था सो कह चले, अब कुछ कहा न जाय ।
एक रहा दूजा गया, दरिया लहर समाय ॥
कबीरदास जी कहते हैं कि मुझे जो कहना था वह मैंने कह दिया इसके अलावा कुछ कहना व्यर्थ है
परमात्मा के अलावा इस संसार में कुछ भी नहीं है आत्मा परमात्मा में उसी तरह मिल जाती है जिससे लहरें नदी में वापस आकर मिल जाती है
कली खोटा जग आंधरा शब्द न माने कोय
चाहे कहूँ सत आईना, जो जग बैरी होय ॥
कबीरदास जी कहते हैं यह संसार खोटा है इस संसार में मेरी कोई बात नहीं मानता है जिसको ज्ञान की भरी बात बताता हूं वही मेरा दुश्मन हो जाता है
कामी, क्रोधी, लालची इनसे भक्ति न होय
भक्ति करे कोई सूरमा, जाति, वरन, कुल खोय ॥
कबीर दास जी का तो इस संसार में तीन प्रवृत्ति के लोग परमात्मा की भक्ति नहीं कर सकते हैं पहला जिसके अंदर काम वासना भरी होती है दूसरा जिसको छड़ छड़ में क्रोध आता है तीसरा जो लालची होता है परमात्मा की भक्ति वही सूरमा व्यक्ति कर सकता है जिसके जाती वण और कुल की परवाह नहीं होती है
लगी लग्न छूटे नाहिं, जीभी चोंच जरि जाय ।
मीठा कहा अंगार में, जाहि चकोर चबाय ॥
कबीरदास जी कहते हैं देख किसी व्यक्ति को किसी से लगन लग जाती है तो वह उसे छोड़ता नहीं है चाहे उसके लिए चाहे जितने खतरे उठाने पड़े
घट का परदा खोलकर, सन्मुख दे दीदार ।
बाल स्नेही साइयाँ, आवा अन्त का यार ॥
कबीरदास जी कहते हैं जो आपका आरंभ से अंत तक मित्र रहता है जो आपके मन में रहता है जब आप ने पटके अंतर खोल कर देखेंगे हुआ है आप में हमेशा दिखाई पड़ेंगे
राजा प्रजा जेहि रुचें, शीश देई ले जाय ॥
इस दोहे में कबीरदास जी कहते हैं कि प्रेम कभी भी किसी बाद में नहीं ऊपजता है ना ही किसी बाजार में बिकता है वह सबके लिए बराबर है चाहे वह राजा हो या प्रजा वह जिसको अच्छा लगे उस पर शीश नवा देता है
अंतर्यामी एक तुम, आत्मा के आधार ।जो तुम छोड़ो हांथ तो, कौन उतारे पार ॥
कबीरदास जी कहते हैं कि हे प्रभु आप आत्मा की बात को जानने वाले हैं आप आत्मा के आधार है अगर आप किसी साथ छोड़ दे तू हमें भवसागर से कौन पार लगाएगा
Kabir Ke Dohe 81 to 90
प्रेम प्याला जो पिये, शीश दक्षिणा देय ।लोभी शीश न दे सके, नाम प्रेम का लेय ॥
कबीरदास जी कहते हैं कि जो व्यक्ति प्रेम रूपी प्याला पिता है वह अपना शीश तक नवा देता है लेकिन जो भी कभी भी सी सपना नहीं रहता है लेकिन प्रेम का नाम लेता है
सुमिरत सूरत जगाय कर, मुख से कछु न बोल ।
बाहर का पट बंद कर, अन्दर का पट खोल ॥
कबीरदास जी कहते हैं कि जो ईश्वर की साधना में अपना मन लगाता है मुख से कुछ नहीं बोलता वह बाहरी दिखावा नहीं करता है आप सच्चे हृदय से प्रभु की भक्ति करता है
ज्यों तिल मांही तेल है, ज्यों चकमक में आग ।
तेरा सांई तुझमें, बस जाग सके तो जाग ॥
नहीं शीतल है चंद्रमा, हिंम नहीं शीतल होय ।
कबीरा शीतल सन्त जन, नाम सनेही सोय ।।
जब लग नाता जगत का, तब लग भागिति न होय ।नाता जोड़े हरि भजे, भगत कहावें सोय ।।
कबीरदास जी कहते हैं कि जब तक संसार का संबंध है तब तक संसार की आसक्ति में रहेगा जो व्यक्ति परमात्मा से नाता जोड़ता है वही व्यक्ति भगत कहलाता है
बानी से पहचानिए, साम चोर की धात ।अंदर की करनी से सब, निकले मुँह की बात ।।
कबीरदास जी कहते हैं कि सज्जन और दुष्ट व्यक्तियों को उसकी वाणी से पहचान लेना चाहिए क्योंकि व्यक्ति जैसा कर्म करता है उसका व्यवहार भी उसी तरह होता है
बानी से पहचानिए, साम चोर की धात ।
अंदर की करनी से सब, निकले मुँह की बात ।।
कबीरदास जी कहते हैं कि सज्जन और दुष्ट व्यक्तियों को उसकी वाणी से पहचान लेना चाहिए क्योंकि व्यक्ति जैसा कर्म करता है उसका व्यवहार भी उसी तरह होता है
फल कारण सेवा करे, करे न मन से काम ।
कहे कबीर सेवक नहीं, चहै चौगुना दाम ।।
कबीरदास जी कहते हैं कि जो व्यक्ति किसी लालच के कारण किसी की सेवा करते हैं जिनके मन में पाप होता है वह सही अर्थ में सेवक नहीं होता है
बाहर क्या दिखलाए, अनंतर जपिए राम ।
कहा काज संसार से, तुझे धनी से काम ।।
कबीरदास जी कहते हैं बाहरी आडंबर दिखाने से कुछ नहीं होता है मनुष्य को अंतरात्मा से भगवान का भजन करते रहना चाहिए
तेरा सांई तुझमें, ज्यों पहुपन में बास ।
कस्तूरी का हिरन ज्यों, फिर-फिर ढूँढ़त घास ।।
कबीरदास जी कहते हैं कि हमारा भगवान हमारे मन के अंदर वास करता है । उसकी खोज में इधर-उधर नहीं जाना चाहिए जिस तरह कस्तूरी हिरण के अंदर होती है और उसकी तलाश में इधर-उधर घुमा करता है इसी तो ईश्वर हमारे अंदर होते हैं और हम उनकी तलाश में दर-दर घुमा करते हैं
Kabir Ke Dohe 91 to 110
कथा-कीर्तन कुल विशे, भवसागर की नाव ।
कहत कबीरा या जगत में नाही और उपाव ।।
कबीरदास जी कहते है कि संसार रूपी भवसागर को पार करने के लिए कथा कीर्तन करना भी बहुत ही आवश्यक होता है इसके अलावा संसार रूपी भवसागर से पार निकलने के लिए कोई अन्य रास्ता नहीं है ।
कबिरा यह तन जात है, सके तो ठौर लगा।
कै सेवा कर साधु की, कै गोविंद गुन गा ।।
कबीरदास जी कहते हैं कि दिन-ब-दिन हमारा शरीर नष्ट होने के करीब पहुंच रहा है अर्थात मृत्यु के करीब पहुंच रहा है इसे ऐसे गवाना चाहिए हमें किसी संत के चरणों में जाना चाहिए और भगवान के भजन करना चाहिए ।
सुख सागर का शील है, कोई न पावे थाह ।
शब्द बिना साधु नही, द्रव्य बिना नहीं शाह ।।
कबीरदास जी कहते हैं कि शील स्वभाव का होना सादर के समान है जिसकी थाह कोई नहीं पा सकते ईश्वर का ध्यान करने के बिना कोई साधु नहीं होता । बिना नहीं कोई शहंशाह नहीं मिलता
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय ।
माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होय ॥
कबीरदास जी कहते हैं सभी काम धीरे-धीरे ही होते हैं जिस तरह माली सैकड़ों पानी पेड़ों में डालता है लेकिन ऋतु आने पर ही उसमें फल लगते हैं ।
शीलवन्त सबसे बड़ा, सब रतनन की खान ।
तीन लोक की सम्पदा, रही शील मे आन ॥
कबीरदास जी कहते हैं जो शील (शान्त एवं सदाचारी) स्वभाव का होता है उसके अंदर सभी रत्नों की खान होती है तीनो लोग की संपदा भी शील में छुपी होती है ।
पाँच पहर धन्धे गया, तीन पहर गया सोय ।
एक पहर हरि नाम बिनु, मुक्ति कैसे होय ॥
कबीरदास जी कहते हैं कि पच पहर तो काम में बीत जाते हैं और तीन पहर सोने में बीत जाते हैं आप एक बार भी भगवान का ध्यान नहीं करते हैं तो आपको मुक्ति कैसे मिलेगी
कबीरा ते नर अन्ध हैं, गुरु को कहते और ।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर ॥
कबीरदास जी कहते हैं की वे वह नर अंधे होते हैं जो गुरु को भगवान से कम मानते हैं कबीर के अनुसार भगवान के रूठने पर गुरु के यहां स्थान मिलता है लेकिन गुरु के रूठने पर उसे कई स्थान नहीं मिलता ।
कबीरा सोया क्या करे, उठी न भजे भगवान ।
जम जब घर ले जायेंगे, पड़ी रहेगी म्यान ॥
कबीरदास जी कहते हैं की वह व्यक्ति जो ईश्वर को कभी याद नहीं करते हैं सुबह उठकर भगवान का ध्यान नहीं करते हैं अंत समय आने पर जब यमराज आपको ले जाएंगे तो आपका शरीर यहीं पर रह जाएगा आपके साथ कुछ नहीं जाएगा
कबीरा संगति साधु की, जौ की भूसी खाय ।
खरी खाँड़ भोजन मिले, ताकर संग न जाय ।।
कबीर के अनुसार साधु के साथ रहना बहुत ही उत्तम चाहे जौ और भूसी भूसीखाकर ही क्यों ना रहना पड़े ।
कबीरा संगति साधु की, हरे और की व्याधि ।
संगति बुरी असाधु की, आठो पहर उपाधि ।।
कबीर दास के अनुसार साधु की संगति बहुत ही अच्छी होती है साधु की संगत सभी कष्टों का निवारण करती है साधु का अर्थ संजन व्यक्ति से है आसाधु की संगत बहुत ही बुरी होती है
एक ते जान अनंत, अन्य एक हो आय ।
एक से परचे भया, एक बाहे समाय ।।
एक से बहुत ही हो हो जाते हैं और बहुत से एक हो जाते हैं जब तुम सब भगवान को जान लोगे तो तुम भी एक ही में मिल जाओगे ।
कबीरा गरब न कीजिए, कबहुँ न हँसिये कोय ।
अजहूँ नाव समुद्र में, का जानै का होय ।।
कबीरदास जी कहते हैं कि कभी भी घमंड नहीं करना चाहिए और भूल कर भी कभी किसी का उपहास नहीं उड़ाना चाहिए ।
कबीरा कलह अरु कल्पना,सतसंगति से जाय ।
दुख बासे भागा फिरै, सुख में रहै समाय ।।
कबीरदास जी कहते हैं कि संतों की संगति में रहने से मन से कलह एवं कल्पनादिक आओ गुड़ चले जाते साधुसेवी व्यक्ति के पास दुख आने का साहस नहीं करता है वह तो सदैव सुख का उपभोग करता रहता है ।
कबीरा संगति साधु की, जित प्रीत किजै जाय ।
दुर्गति दूर वहावती, देवी सुमति बनाय ।।
कबीर दास जी के अनुसार साधु की संगति बहुत ही अच्छी होती है यह सभी और से फल देती है दुर्गति को दूर भगाती है
कबीरा संगत साधु की, निष्फल कभी न होय ।
होमी चन्दन बासना, नीम न कहसी कोय ।।
कबीरदास के अनुसार साधु की संगत कभी भी बेकार नहीं जाती है ।
कबीरा लहर समुद्र की, निष्फल कभी न जाय ।
बगुला परख न जानई, हंसा चुग-चुग खे ।।
कबीरदास जी कहते हैं कि समुद्र की लहर भी व्यर्थ नहीं आती। बगुला ज्ञान विहीन होने के कारण मांस खाकर जीवन व्यतीत करना पड़ता है। लेकिन हंस बुद्धिमान होने के कारण मोती खाकर अपना जीवन व्यतीत कर देता है।
को छुटौ इहिं जाल परि, कत फुरंग अकुलाय ।
ज्यों-ज्यों सुरझि भजौ चहै, त्यों-त्यों उरझत जाय ।।
कबीर दास जी के अनुसर इस संसार में माया मोह से निकलना बहुत ही मुश्किल है । जो व्यक्ति माया मोह के जाल से निकलना चाहता है वह और भी उसमें उलझता जाता है
कबीरा धीरज के धरे, हाथी मन भर खाय ।
टूट-टूट के कारनै, स्वान धरे धर जाय ।।
कबीर दास जी कहते हैं कि हाथी के सब्र से ही वह मनभर खाता है, लेकिन कुत्ते में धैर्य नहीं होने के कारण वह पल भर के लिए घर-घर भटकता रहता है। इसलिए सभी जीवों को धैर्य रखना चाहिए।
कबीरा सोया क्या करे, उठि न भजे भगवान ।
जम जब घर ले जाएँगे, पड़ा रहेगा म्यान ।।
कबीरदास जी कहते हैं कि मनुष्य जीवन भर अज्ञानता में रहता है भगवान का कभी भी ध्यान नहीं करता जब आपका जीवन पूरा हो जाए यमराज लोग आपको लेने आएंगे तो आपका शरीर यही पर रह जाएगा आपके साथ कुछ नहीं जाएगा।
काह भरोसा देह का, बिनस जात छिन मारहिं ।
साँस-साँस सुमिरन करो, और यतन कछु नाहिं ।।
कबीरदास जी कहते हैं कि इस तरह का कोई भरोसा नहीं पता नहीं कब आपका साथ छोड़ कर चला दो । इसलिए जितनी बार यह सांस तुम लेते हो दिन में उतनी बार भगवान के नाम का स्मरण करो कोई यत्न नहीं है ।
Kabir Ke Dohe 111 to 140
आंखो देखा घी भला, ना मुख मेला तेल
साधु सोन झगरा भला, ना साकुत सोन मेल।
अर्थ- कबीरदास जी कहते हैं धी देखने मात्र से ही अच्छा लगता है लेकिन तेल मुॅुह में डालने पर भी अच्छा नहीं लगता है। संतो से झगड़ा भी अच्छा है पर दुष्टों से मेल-मिलाप मित्रता भी अच्छा नहीं है।
उजर घर मे बैठि के, कैसा लिजय करी
सकुट के संग बैठि के, किउ कर पाबे हरि।
अर्थ- कबीर दास जी कहते हैं सुनसान उजार घर में बैठकर किसका नाम पुकारेंगे। इसी तरह मुर्ख-अज्ञानी के साथ बैठकर ईश्वर को कैसे प्राप्त कर सकेंगे ।
एक अनुपम हम किया, साकट सो व्यवहार
निन्दा सती उजागरो, कियो सौदा सार।
अर्थ- कबीरदास जी कहते हैं यदि एक अज्ञानी से लेनदेन का व्यवहार कर के अच्छा सौदा किया। उसके द्वारा मेरे दोषों को उजागर करने से मैं पवित्र हो गया। यह व्यापार मेरे लिये बहुत लाभदायी होगा।
कंचन मेरु अरपहि, अरपै कनक भंडार
कहै कबीर गुरु बेमुखी, कबहु ना पाबै पार।
अर्थ- कबीरदास जी कहते हैं भले आप स्वर्ण भंडार या सोने का पहाड़ दान में दे दें, लुटा दें पर यदि आप गुरु के उपदेसों के प्रति उदासीन हैं तो आप संसार सागर को पार नहीं कर पायेंगे।
कबीर साकट की सभा तु मति बैठे जाये
ऐक गुबारै कदि बरै, रोज गाधरा गाये।
अर्थ- कबीर मूर्खों की सभा में बैठने के लिये मना करते है। यदि एक गोशाला में नील गाय, गद्हा और गाय एक साथ रहेंगे तो उन में परस्पर अवस्य लड़ाई झगड़ा होगा। दुष्ट की संगति अच्छी नहीं है।
खशम कहाबै वैषनव, घर मे साकट जोये
एक घड़ा मे दो मता, भक्ति कहां ते होये।
अर्थ- पति ईष्वर का भक्त वैष्वनव और पत्नी बेबकूफ मूर्ख हो तो एक ही घर में दो मतों विचारों के कारण भक्ति कैसे संभव हो सकती है।
कबीर गुरु की भगति बिनु, राजा रसम होये
माटिृ लड़ै कुमहार की,घास ना डारै कोये।
अर्थ- कबीर कहते है की गुरु की भक्ति बिना एक राजा गद्हा के समान है। उसके उपर कुम्हार की मिटृी लादी जाती है और उसे कोई घास भी नहीं देता है। गुरु ज्ञान के बिना राजा भी महत्वहीन है
कबीर चंदन के भिरे, नीम भी चंदन होये
बुरो बंश बराईया, यों जानि बुरु कोये।
अर्थ- कबीर कहते है की चंदन के संसर्ग में नीम भी चंदन हो जाता है पर बाॅंस अपनी अकड़ घमंड के कारण कभी चंदन नहीं होता है। हमें धन विद्या आदि के अहंकार में कभी नहीं पड़ना चाहिये।
कबीर लहरि समुद्र की, मोती बिखरै आये
बगुला परख ना जानिये, हंसा चुगि चुगि खाये।
अर्थ- कबीर कहते है की समुद्र के लहड़ के साथ मोती भी तट पर बिखर जाता है। बगुला को इसकी पहचान नही होती है पर हंस उसे चुन-चुन कर खाता है। अज्ञानी गुरु के उपदेश का महत्व नही जानता पर ज्ञानी उसे ह्रदय से ग्रहण करता है।
गुरु बिन माला फेरते, गुरु बिन देते दान
गुरु बिन सब निस्फल गया, पुछौ वेद पुरान।
अर्थ- गुरु की शिक्षा के बिना माला फेरने और दान देने से कोई फल नहीं मिलने वाला है। यह बात वेद पुराण आदि प्राचीन धर्म ग्रंथों में भी कही गयी है
टेक ना किजीय बाबरे, टेक माहि है हानि
टेक छारि मानिक मिले, सतगुरु वचन प्रमानि।
अर्थ- मुर्खों कभी हठ मत करो। हठ से बहुत हानि होती है। हठ छोड़ने पर माणिक्य रत्न की प्राप्ति होती है। यह सदगुरु के उपदेशों से प्रमाणित हो चुका है। जिद छोड़कर गुरु के उपदेशों को मानने पर ईश्वर रुपी रत्न की प्राप्ति होती है।
गुरु बिन अहनिश नाम ले, नहि संत का भाव
कहै कबीर ता दास का, परै ना पूरा दाव।
अर्थ- जो गुरु के निर्देश बिना दिन रात प्रभु का नाम लेता है और जिसके दिल में संत के प्रति प्रेम भाव नहीं है। कबीर कहते है की उस व्यक्ति का मनोरथ कभी पूरा नही होता है।
निगुरा ब्राहमन नहि भला, गुरुमुख भला
चमार देवतन से कुत्ता भला, नित उठि भूके द्वार।
अर्थ- एक मूर्ख ब्राहमन अच्छा नही है एक गुरु का शिष्य चर्मकार अच्छा है। देवताओं से कुत्ता अच्छा है जो नित्य उठकर दरवाजे पर भौंक कर चोरों से हमारी रक्षा करता है।
पसुवा सो पालोउ परयो, रहु हिया ना खीज
उसर बीज ना उगसी, बोबै दूना बीज।
अर्थ- पशु समान प्रवृति बाले लोगों से पाला पड़ने पर लगातार खीज होती रहती है। उसर परती जमीन पर दूगुना बीज डालने पर भी वह उगता नहीं है
राजा की चोरी करै, रहै रंक की ओट
कहै कबीर क्यों उबरै, काल कठिन की चोट।
अर्थ- राजा के यहाँ चोरी करके गरीब के घर शरण लेने पर कोई कैसे बच पायेगा। कबीर का कहना है की बिना गुरु के शरण में गये कल्पित देवताओं के द्वारा तुम मृत्यु के देवता काल के मार से कैसे बच पाओगे।
भौसागर की तरास से, गुरु की पकरो बांहि
गुरु बिन कौन उबारसि, भौजाल धरा माहि।
अर्थ- इस संसार सागर के भय से त्राण के लिये तुम्हें गुरु की बांह पकड़नी होगी। तुम्हें गुरु के बिना इस संसार सागर के तेज धारा से बचने में और कोई सहायक नहीं हो सकता है।
आगि आंचि सहना सुगम, सुगम खडग की धार
नेह निबाहन ऐक रास, महा कठिन ब्यबहार।
अर्थ- अग्नि का ताप और तलवार की धार सहना आसान है किंतु प्रेम का निरंतर समान रुप से निर्वाह अत्यंत कठिन कार्य है।
कहाँ भयो तन बिछुरै, दुरि बसये जो बास
नैना ही अंतर परा, प्रान तुमहारे पास।
अर्थ- शरीर बिछुड़ने और दूर में वसने से क्या होगा? केवल दृष्टि का अंतर है। मेरा प्राण और मेरी आत्मा तुम्हारे पास है।
नेह निबाहन कठिन है, सबसे निबहत नाहि
चढ़बो मोमे तुरंग पर, चलबो पाबक माहि।
अर्थ- प्रेम का निर्वाह अत्यंत कठिन है। सबों से इसको निभाना नहीं हो पाता है। जैसे मोम के घोंड़े पर चढ़कर आग के बीच चलना असंभव होता है
प्रीत पुरानी ना होत है, जो उत्तम से लाग
सौ बरसा जल मैं रहे, पात्थर ना छोरे आग।
अर्थ- प्रेम कभी भी पुरानी नहीं होती यदि अच्छी तरह प्रेम की गई हो जैसे सौ वर्षो तक भी वर्षा में रहने पर भी पथ्थर से आग अलग नहीं होता।
Kabir Ke Dohe 141 to 160
प्रेम पंथ मे पग धरै, देत ना शीश
डराय सपने मोह ब्यापे नही, ताको जनम नसाय।
अर्थ- प्रेम के राह में पैर रखने वाले को अपने सिर काटने का डर नहीं होता। उसे स्वप्न में भी भ्रम नहीं होता और उसके पुनर्जन्म का अंत हो जाता है।
प्रीति बहुत संसार मे, नाना बिधि की सोय
उत्तम प्रीति सो जानिय, हरि नाम से जो होय।
अर्थ- संसार में अपने प्रकार के प्रेम होते हैं। बहुत सारी चीजों से प्रेम किया जाता है। पर सर्वोत्तम प्रेम वह है जो हरि के नाम से किया जाये।
प्रेम प्रेम सब कोई कहै, प्रेम ना चिन्है कोई
जा मारग हरि जी मिलै, प्रेम कहाये सोई।
अर्थ- सभी लोग प्रेम-प्रेम बोलते-कहते हैं परंतु प्रेम को कोई नहीं जानता है। जिस मार्ग पर प्रभु का दर्शन हो जाये वही सच्चा प्रेम का मार्ग है।
प्रेम प्रेम सब कोई कहै, प्रेम ना चिन्है कोई
आठ पहर भीना रहै, प्रेम कहाबै सोई।
अर्थ- सभी लोग प्रेम-प्रेम कहते है किंतु प्रेम को शायद हीं कोई जानता है। यदि कोई व्यक्ति आठो पहर प्रेम में भीन्गा रहे तो उसका प्रेम सच्चा कहा जायेगा।
सौ जोजन साजन बसै, मानो हृदय मजहार
कपट सनेही आंगनै, जानो समुन्दर पार।
अर्थ- वह हृदय के पास हीं बैठा है। किंतु एक झूठा-कपटी प्रेमी अगर आंगन में भी बसा है तो मानो वह समुद्र के उसपार बसा है।
साजन सनेही बहुत हैं, सुख मे मिलै अनेक
बिपति परै दुख बाटिये, सो लाखन मे ऐक।
अर्थ- सुख मे अनेक सज्जन एंव स्नेही बहुतायत से मिलते हैं पर विपत्ति में दुख वाटने वाला लाखों मे एक ही मिलते हैं।
यह तो घर है प्रेम का, उंचा अधिक ऐकांत
सीस काटि पग तर धरै, तब पैठे कोई संत।
अर्थ- यह घर प्रेम का है। बहुत उॅंचा और एकांत है। जो अपना शीश काट कर पैरों के नीचे रखने को तैयार हो तभी कोई संत इस घर में प्रवेश कर सकता है। प्रेम के लिये सर्वाधिक त्याग की आवश्यकता है
हरि रसायन प्रेम रस, पीबत अधिक रसाल
कबीर पिबन दुरलभ है, मांगे शीश कलाल।
अर्थ- हरि नाम की दवा प्रेम रस के साथ पीने में अत्यंत मधुर है। कबीर कहते हैं कि इसे पीना अत्यंत दुर्लभ है क्यों कि यह सिर रुपी अंहकार का त्याग मांगता है।
सबै रसायन हम किया, प्रेम समान ना कोये
रंचक तन मे संचरै, सब तन कंचन होये।
अर्थ- समस्त दवाओं -साधनों का कबीर ने उपयोग किया परंतु प्रेम रुपी दवा के बराबर कुछ भी नहीं है। प्रेम रुपी साधन का अल्प उपयोग भी हृदय में जिस रस का संचार करता है उससे सम्पूर्ण शरीर स्र्वण समान उपयोगी हो जाता है।
पीया चाहै प्रेम रस, राखा चाहै मान
दोय खड्ग ऐक म्यान मे, देखा सुना ना कान।
अर्थ- या तो आप प्रेम रस का पान करें या आंहकार को रखें। दोनों एक साथ संभव नहीं है एक म्यान में दो तलवार रखने की बात न देखी गई है ना सुनी गई है।
कपास बिनुथा कापड़ा, कादे सुरंग ना पाये
कबीर त्यागो ज्ञान करि, कनक कामिनि दोये।
अर्थ- कबीरदास जी कहते हैं कि जिस प्रकार गंदे कपास से वस्त्र को नहीं बनाया जा सकता है इसी तरह ज्ञानी की संगति त्याग कर स्वर्ण और स्त्री मैं कभी भी ज्ञान की प्राप्ति नहीं होगी
कबीर नारी की प्रीति से, केटे गये गरंत
केटे और जाहिंगे, नरक हसंत हसंत।
अर्थ- कबीरदास जी कहते हैं नारी की प्रेम में पढ़कर बहुत सारे लोगों ने नरक की गति प्राप्त कर ले और बहुत सारे लोग ऐसे भी हैं जो हंसते-हंसते नारद की गति जाने के लिए तैयार है।
कबीर मन मिरतक भया, इंद्री अपने हाथ
तो भी कबहु ना किजिये, कनक कामिनि साथ।
अर्थ- कबीरदास जी कहते हैं कि अगर आपकी सभी इच्छाएं मन में मर चुकी हैं तो आप कभी भी धन नारी का साथ मत करें।
कलि मंह कनक कामिनि, ये दौ बार फांद
इनते जो ना बंधा बहि, तिनका हूँ मै बंद।
अर्थ- कबीरदास जी कहते हैं कि जो व्यक्ति इस कलयुग में धन और स्त्री के मोह में नहीं फसा है।
शंकर हु ते सबल है, माया येह संसार
अपने बल छुटै नहि, छुटबै सिरजनहार।
अर्थ- कबीरदास जी कहते हैं यह संसार एक माया है जो शंकर भगवान से भी अधिक बलवान है। यह स्वंय आप के प्रयास से कभी नहीं छुट सकता है। केवल प्रभु ही इससे आपको उबर सकते है।
संतो खायी रहत है, चोरा लिनहि जाये
कहै कबीर विचारी के, दरगाह मिलि है आये।
अर्थ- कबीरदास जी कहते हैं संतों पर किया गया धन हमेशा बच्चा रहता है हम बात ही धन चोर ले जाते हैं कबीर दास जी के अनुसार धन को सत्कर्म में खर्चा करना चाहिए।
सब पापन का मूल है, ऐक रुपैया रोके
साधुजन संग्रह करै, हरै हरि सा ठोके।
अर्थ- कबीरदास जी कहते हैं कि विलासिता मैं खर्च किया जाने वाला एक धन भी पाप का ताला बनता है।
नागिन के तो दोये फन, नारी के फन
बीस जाका डसा ना फिर जीये, मरि है बिसबा बीस।
अर्थ- कबीरदास जी कहते हैं कि सांप के केवल दो फंन होते है पर स्त्री के बीस फंन होते है। स्त्री के डसने पर कोई जीवित नहीं बच सकता है। बीस लोगों को काटने पर बीसों मर जाते है।
कामिनि सुन्दर सर्पिनी, जो छेरै तिहि खाये
जो हरि चरनन राखिया, तिनके निकट ना जाये।
अर्थ- कबीरदास जी कहते हैं कि नारी एक सुन्दर सर्पिणी की भांति है। उसे जो छेरता है उसे वह खा जाती है। पर जो हरि के चरणों मे रमा है उसके नजदीक भी वह नहीं जाती है
नारी पुरुष की स्त्री, पुरुष नारी का पूत
यहि ज्ञान विचारि के, छारि चला अवधूत।
अर्थ- कबीरदास जी कहते हैं कि एक नारी पुरुष की स्त्री होती है। एक पुरुष नारी का पुत्र होता है। इसी ज्ञान को विचार कर एक संत अवधूत कामिनी से विरक्त रहता है।
गये रोये हंसि खेलि के, हरत सबौं के प्रान
कहै कबीर या घात को, समझै संत सुजान।
अर्थ- कबीरदास जी कहते हैं कि गाकर,रोकर, हंसकर या खेल कर नारी सब को अपने बस में कर लेती है। कबीर कहते है की इसका आघात या चोट केवल संत और ज्ञानी ही समझते है।