60+ रहीम के दोहे Rahim Das Ke Dohe

rahim ke dohe
रहीम के दोहे

रहीम के दोहे Rahim Das Ke Dohe

1
देनहार कोउ और है, भेजत सो दिन रैन।
लोग भरम हम पै धरैं, याते नीचे नैन ॥
2
अमर बेलि बिनु मूल की, प्रतिपालत है ताहि।
रहिमन ऐसे प्रभुहिं तजि, खोजत फिरिए काहि ॥

3

अब रहीम मुसकिल परी, गाढ़े दोऊ काम।
सांचे से तो जग नहीं, झूठे मिलैं न राम ॥
4
आवत काज रहीम कहि, गाढ़े बंधे सनेह।
जीरन होत न पेड़ ज्यों, थामें बरै बरेह ॥

5

एकै साधे सब सधै, सब साधे सब जाय।
रहिमन मूलहिं सींचिबो, फूलै फलै अघाय ॥

6

अंजन दियो तो किरकिरी, सुरमा दियो न जाय।
जिन आंखिन सों हरि लख्यो, रहिमन बलि बलि जाय ॥
7
अंतर दाव लगी रहै, धुआं न प्रगटै सोय।
कै जिय जाने आपुनो, जा सिर बीती होय ॥
8
उरग तुरग नारी नृपति, नीच जाति हथियार।
रहिमन इन्हें संभारिए, पलटत लगै न बार ॥

9

ओछो काम बड़ो करैं, तो न बड़ाई होय।
ज्यों रहीम हनुमंत को, गिरधर कहै न कोय ॥

9

कहि रहीम धन बढ़ि घटे, जात धनिन की बात।
घटै बढ़े उनको कहा, घास बेचि जे खात ॥
10
कहि रहीम संपति सगे, बनत बहुत बहु रीत।
बिपति कसौटी जे कसे, तेई सांचे मीत ॥
11
कहु रहीम केतिक रही, केतिक गई बिहाय।
माया ममता मोह परि, अन्त चले पछिताय ॥

12

कहि रहीम इक दीप तें, प्रगट सबै दुति होय।
तन सनेह कैसे दुरै, दूग दीपक जरु होय ॥

13

कहु रहीम कैसे निभै, बेर केर को संग।
वे डोलत रस आपने, उनके फाटत अंग ॥
14
कहा करौं बैकुंठ लै, कल्प बृच्छ की छांह।
रहिमन ढाक सुहावनै, जो गल पीतम बांह ॥
15
को रहीम पर द्वार पै, जात न जिय सकुचात।
संपति के सब जात हैं, बिपति सबै लै जात ॥
16
खीरा को मुंह काटि के, मलियत लोन लगाय।
रहिमन करुए मुखन को, चहियत इहै सजाय ॥
17
गरज आपनी आप सों, रहिमन कही न जाय।
जैसे कुल की कुलवधु, पर घर जात लजाय ॥
18
चित्रकूट में रमि रहे, रहिमन अवध नरेस।
जापर विपदा पड़त है, सो आवत यहि देस ॥

19

छमा बड़ेन को चाहिए, छोटन को उत्पात।
का रहीम हरि को घट्यो, जो भृगु मारी लात ॥
20

जे गरीब सों हित करै, धनि रहीम वे लोग।
कहा सुदामा बापुरो, कृष्ण मिताई जोग ॥
21
रहीम के दोहे अर्थ सहित
जैसी परै सो सहि रहै, कहि रहीम यह देह।
धरती ही पर परत हैं, सीत घाम और मेह ॥
22
जो पुरुषारथ ते कहूं, संपति मिलत रहीम।
पेट लागि बैराट घर, तपत रसोई भीम ॥
23
जे सुलगे ते बुझि गए, बुझे तो सुलगे नाहिं।
रहिमन दाहे प्रेम के, बुझि बुझि के सुलगाहिं ॥
24
जो बड़ेन को लघु कहे, नहिं रहीम घटि जांहि।
गिरिधर मुरलीधर कहे, कछु दुख मानत नांहि ॥
25
जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग।
चन्दन विष व्यापत नहीं, लपटे रहत भुजंग ॥
26
जो रहीम ओछो बढ़ै, तौ ही इतराय।
प्यादे सों फरजी भयो, टेढ़ो टेढ़ो जाय ॥

27

जो रहीम गति दीप की, कुल कपूत गति सोय।
बारे उजियारे लगै, बढ़े अंधेरो होय ॥
28

जो रहीम भावी कतहुं, होति आपने हाथ।
राम न जाते हरिन संग, सीय न रावण साथ ॥
30

जो रहीम मन हाथ है, तो मन कहुं किन जाहि।
ज्यों जल में छाया परे, काया भीजत नाहिं ॥

31

जो विषया संतन तजो, मूढ़ ताहि लपटात।
ज्यों नर डारत वमन कर, स्वान स्वाद सो खात ॥

32

टूटे सुजन मनाइए, जो टूटे सौ बार।
रहिमन फिरि फिरि पोहिए, टूटे मुक्ताहार ॥

33

तरुवर फल नहीं खात है, सरवर पियत न पान।
कहि रहीम परकाज हित, संपति-सचहिं सुजान ॥

34

दादुर, मोर, किसान मन, लग्यौ रहै धन मांहि।
पै रहीम चाकत रटनि, सरवर को कोउ नाहि ॥

35

दीन सबन को लखत है, दीनहिं लखै न कोय।
जो रहीम दीनहिं लखत, दीनबन्धु सम होय ॥

36

दुरदिन परे रहीम कहि, भूलत सब पहिचानि।
सोच नहीं वित हानि को, जो न होय हित हानि ॥

37

धन थोरो इज्जत बड़ी, कह रहीम का बात।
जैसे कुल की कुलवधु, चिथड़न माहि समात ॥

38

दोनों रहिमन एक से, जौलों बोलत नाहिं ।
जान परत है काक पिक, ॠतु बसन्त के माहिं ॥

39

नाद रीझि तन देत मृग, नर धन देत समेत ।
ते रहिमन पसु ते अधिक, रीझेहुं कछु न देत ॥

40

पावस देखि रहीम मन, कोइल साधे मौन ।
अब दादुर वक्ता भए, हम को पूछत कौन ॥

41

प्रीतम छवि नैनन बसि, पर छवि कहां समाय ।
भरी सराय रहीम लखि, आपु पथिक फिरि जाय ॥

42

बड़े बड़ाई ना करें, बड़ो न बोलें बोल ।
रहिमन हीरा कब कहै, लाख टका है मोल ॥

43

बसि कुसंग चाहत कुसल, यह रहीम जिय सोस ।
महिमा घटी समुन्द्र की, रावन बस्यो परोस ॥

44

बिगरी बात बने नहीं, लाख करो किन कोय ।
रहिमन बिगरै दूध को, मथे न माखन होय ॥
अन्य पढ़े रहीम के दोहे अर्थ सहित 

45

मान सहित विष खाय के, संभु भए जगदीस ।
बिना मान अमृत पिए, राहु कटायो सीस ॥

46

रहिमन तीर की चोट ते, चोट परे बचि जाय ।
नैन बान की चोट तैं, चोट परे मरि जाय ॥

47

सदा नगारा कूच का, बाजत आठो जाम ।
रहिमन या जग आइकै, का करि रहा मुकाम ॥

48

समय पाय फल होत है, समय पाय झरि जात ।
सदा रहै नहीं एक सी, का रहीम पछितात ॥

49

रहिमन विपदा हू भली, जो थोरे दिन होय ।
हित अनहित मा जगत में, जानि परत सब कोय ॥

50

रहिमन रजनी ही भली, पिय सों होय मिलाप ।
खरो दिवस केहि काम जो, रहिबो आपुहि आप ॥

51

रहिमन अंसुवा नैन ढरि, जिय दुख प्रगट करेइ ।
जाहि निकारो गेह तें, कस न भेद कहि देइ ॥

52

रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय ।
टूटे से फिर न जुड़े, जुड़े तो गांठ पड़ जाय ॥

53

रहिमन पर उपकार के, करत न यारी बीच ।
मांस दियो शिवि भूप ने, दीन्हो हाड़ दधीच ॥

54

रहिमन तब लगि ठहरिए, दान मान, सम्मान ।
घटत मान देखिए जबहि, तुरतहिं करिय पयान ॥

55

रहिमन छोटे नरन सों, होत बड़ों नहिं काम ।
मढ़ो दमामो ना बने, सौ चूहे के चाम ॥

56

लोहे की न लोहार की, रहिमन कही विचार ।
जो हानि मारै सीस में, ताही की तलवार ॥

57

रहिमन निज मन की विथा, मन ही राखो गोय ।
सुनि अठिलै है लोग सब, बांटि न लैहे कोय ॥

58

रहिमन विद्या बुद्धि नहीं, नहीं धरम जस दान ।
भू पर जनम वृथा धरै, पसु बिन पूंछ विषान ॥

59

रहिमन वे नर मर चुके, जो कहुं मांगन जांहि ।
उनते पहिले वे मुए, जिन मुख निकसत नाहिं ॥

60

रहिमन कबहुं बड़ेन के, नाहिं गरब को लेस ।
भार धरे संसार को, तऊ कहावत सेस ॥
 एकै साधे सब सधै, सब साधे सब जाय।
रहिमन मूलहिं सींचिबो, फूलै फलै अगाय॥

61

देनहार कोउ और है, भेजत सो दिन रैन।
लोग भरम हम पै धरैं, याते नीचे नैन॥
62
अब रहीम मुसकिल परी, गाढ़े दोऊ काम।
सांचे से तो जग नहीं, झूठे मिलैं न राम॥
63
गरज आपनी आप सों रहिमन कहीं न जाया।
जैसे कुल की कुल वधू पर घर जात लजाया॥
64
छमा बड़न को चाहिये, छोटन को उत्पात।
कह ‘रहीम’ हरि का घट्यौ, जो भृगु मारी लात॥
64
तरुवर फल नहिं खात है, सरवर पियहि न पान।
कहि रहीम पर काज हित, संपति सँचहि सुजान॥
65
खीरा को मुंह काटि के, मलियत लोन लगाय।
रहिमन करुए मुखन को, चहियत इहै सजाय॥
66
जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग।
चन्दन विष व्यापत नहीं, लपटे रहत भुजंग॥
67
जे गरीब सों हित करै, धनि रहीम वे लोग।
कहा सुदामा बापुरो, कृष्ण मिताई जोग॥
68
जो बड़ेन को लघु कहे, नहिं रहीम घटि जांहि।
गिरिधर मुरलीधर कहे, कछु दुख मानत नांहि॥
69
खैर, खून, खाँसी, खुसी, बैर, प्रीति, मदपान।
रहिमन दाबे न दबै, जानत सकल जहान॥
70
टूटे सुजन मनाइए, जो टूटे सौ बार।
रहिमन फिरि फिरि पोहिए, टूटे मुक्ताहार॥
71
बिगरी बात बने नहीं, लाख करो किन कोय।
रहिमन बिगरे दूध को, मथे न माखन होय॥
72
आब गई आदर गया, नैनन गया सनेहि।
ये तीनों तब ही गये, जबहि कहा कछु देहि॥
73
चाह गई चिंता मिटी, मनुआ बेपरवाह।
जिनको कछु नहि चाहिये, वे साहन के साह॥
74
रहिमन देख बड़ेन को, लघु न दीजिये डारि।
जहाँ काम आवै सुई, कहा करै तलवारि॥
75
माली आवत देख के, कलियन करे पुकारि।
फूले फूले चुनि लिये, कालि हमारी बारि॥
76
रहिमन वे नर मर गये, जे कछु माँगन जाहि।
उनते पहिले वे मुये, जिन मुख निकसत नाहि॥
77
रहिमन विपदा ही भली, जो थोरे दिन होय।
हित अनहित या जगत में, जानि परत सब कोय॥
78
रहिमन चुप हो बैठिये, देखि दिनन के फेर।
जब नीके दिन आइहैं, बनत न लगिहैं देर॥
79
बानी ऐसी बोलिये, मन का आपा खोय।
औरन को सीतल करै, आपहु सीतल होय॥
80
मन मोती अरु दूध रस, इनकी सहज सुभाय।
फट जाये तो ना मिले, कोटिन करो उपाय॥
81
वे रहीम नर धन्य हैं, पर उपकारी अंग।
बाँटनवारे को लगै, ज्यौं मेंहदी को रंग॥
82
रहिमह ओछे नरन सो, बैर भली ना प्रीत।
काटे चाटे स्वान के, दोउ भाँति विपरीत॥
83
रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय।
टूटे से फिर ना जुड़े, जुड़े गाँठ परि जाय॥
84
रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून।
पानी गये न ऊबरे, मोती, मानुष, चून॥

रहीम की कविताये

Poetry Rahim in Hindi

1. अति अनियारे मानों सान दै सुधारे
अति अनियारे मानों सान दै सुधारे,
महा विष के विषारे ये करत पर-घात हैं ।
ऐसे अपराधी देख अगम अगाधी यहै,
साधना जो साधी हरि हयि में अन्‍हात हैं ।।
बार बार बोरे याते लाल लाल डोरे भये,
तोहू तो ‘रहीम’ थोरे बिधि ना सकात हैं ।
घाइक घनेरे दुखदाइक हैं मेरे नित,
नैन बान तेरे उर बेधि बेधि जात हैं ।।
2. बड़ेन सों जान पहिचान कै रहीम कहा
बड़ेन सों जान पहिचान कै रहीम कहा,
जो पै करतार ही न सुख देनहार है ।
सीत-हर सूरज सों नेह कियो याही हेत,
ताऊ पै कमल जारि डारत तुषार है ।।
नीरनिधि माँहि धस्‍यो शंकर के सीस बस्‍यो,
तऊ ना कलंक नस्‍यो ससि में सदा रहै ।
बड़ो रीझिवार है, चकोर दरबार है,
कलानिधि सो यार तऊ चाखत अंगार है ।।
3. छबि आवन मोहनलाल की
छबि आवन मोहनलाल की ।
काछनि काछे कलित मुरलि कर पीत पिछौरी साल की ।।
बंक तिलक केसर को कीने दुति मानो बिधु बाल की ।
बिसरत नाहिं सखि मो मन ते चितवनि नयन बिसाल की ।।
नीकी हँसनि अधर सधरनि की छबि छीनी सुमन गुलाल की ।
जल सों डारि दियो पुरइन पर डोलनि मुकता माल की ।।
आप मोल बिन मोलनि डोलनि बोलनि मदनगोपाल की ।
यह सरूप निरखै सोइ जानै इस ‘रहीम’ के हाल की ।।
4. दीन चहैं करतार जिन्‍हें सुख
दीन चहैं करतार जिन्‍हें सुख सो तो ‘रहीम’ टरै नहिं टारे ।
उद्यम पौरुष कीने बिना धन आवत आपुहिं हाथ पसारे ।।
दैव हँसे अपनी अपनी बिधि के परपंच न जात बिचारे ।
बेटा भयो वसुदेव के धाम औ दुंदुभि बाजत नंद के द्वारे ।।
5. जाति हुती सखि गोहन में
जाति हुती सखि गोहन में मन मोहन कों लखिकै ललचानो ।
नागरि नारि नई ब्रज की उनहूँ नूंदलाल को रीझिबो जानो ।।
जाति भई फिरि कै चितई तब भाव ‘रहीम’ यहै उर आनो ।
ज्‍यों कमनैत दमानक में फिरि तीर सों मारि लै जात निसानो ।।
6. जिहि कारन बार न लाये कछू
जिहि कारन बार न लाये कछू गहि संभु-सरासन दोय किया ।
गये गेहहिं त्‍यागि के ताही समै सु निकारि पिता बनवास दिया ।।
कहे बीच ‘रहीम’ रर्यो न कछू जिन कीनो हुतो बिनुहार हिया ।
बिधि यों न सिया रसबार सिया करबार सिया पिय सार सिया ।।
7. कमल-दल नैननि की उनमानि
कमल-दल नैननि की उनमानि ।
बिसरत नाहिं सखी मो मन ते मंद मंद मुसकानि ।।
यह दसननि दुति चपला हूते महा चपल चमकानि ।
बसुधा की बसकरी मधुरता सुधा-पगी बतरानि ।।
चढ़ी रहे चित उर बिसाल को मुकुतमाल थहरानि ।
नृत्‍य-समय पीतांबर हू की फहरि फहरि फहरानि ।
अनुदिन श्री वृन्‍दाबन ब्रज ते आवन आवन जाति ।
अब ‘रहीम ‘चित ते न टरति है सकल स्‍याम की बानि ।।
8. कौन धौं सीख ‘रहीम’ इहाँ
कौन धौं सीख ‘रहीम’ इहाँ इन नैन अनोखि यै नेह की नाँधनि ।
प्‍यारे सों पुन्‍यन भेंट भई यह लोक की लाज बड़ी अपराधिनि ।।
स्‍याम सुधानिधि आनन को मरिये सखि सूँधे चितैवे की साधनि ।
ओट किए रहतै न बनै कहतै न बनै बिरहानल बाधनि ।।
9. मोहिबो निछोहिबो सनेह में तो नयो नाहिं
मोहिबो निछोहिबो सनेह में तो नयो नाहिं,
भले ही निठुर भये काहे को लजाइये ।।
तन मन रावरे सो मतों के मगन हेतु,
उचरि गये ते कहा तुम्‍हें खोरि लाइये ।।
चित लाग्‍यो जित जैये तितही ‘र‍हीम’ नित,
धाधवे के हित इत एक बार आइये ।।
जान हुरसी उर बसी है तिहारे उर,
मोसों प्रीति बसी तऊ हँसी न कराइये ।।
10. पट चाहे तन पेट चाहत छदन मन
पट चाहे तन पेट चाहत छदन मन
चाहत है धन, जेती संपदा सराहिबी ।
तेरोई कहाय कै ‘रहीम’ कहै दीनबंधु
आपनी बिपत्ति जाय काके द्वारे काहिबी ।।
पेट भर खायो चाहे, उद्यम बनायो चाहे,
कुटुंब जियायो चाहे का‍ढि गुन लाहिबी ।
जीविका हमारी जो पै औरन के कर डारो,
ब्रज के बिहारी तो तिहारी कहाँ साहिबी ।।
11. पुतरी अतुरीन कहूँ मिलि कै
पुतरी अतुरीन कहूँ मिलि कै लगि लागि गयो कहुँ काहु करैटो ।
हिरदै दहिबै सहिबै ही को है कहिबै को कहा कछु है गहि फेटो ।।
सूधे चितै तन हा हा करें हू ‘रहीम’ इतो दुख जात क्‍यों मेटो ।

ऐसे कठोर सों औ चितचोर सों कौन सी हाय घरी भई भेंटो ।।

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