जैन धर्म का इतिहास 24 तीर्थंकर Jain Dharm in Hindi

जैन धर्म

जैन धर्म का इतिहास Jain Dharm in Hindi

Jain Dharm in Hindi जैन धर्म  जैन शब्द संस्कृत भाषा के ‘ जिन ‘ शब्द से निकला है । ‘ जिन ‘ शब्द का अर्थ है विजेता । इस शाब्दिक अर्थ है जिसने अपनी इंद्री को जीत लिया हो

जैन धर्म के तीर्थंकर Jain Dharm ke tirthankar

 जैन धर्म के तीर्थंकर जैन धर्म प्रवर्तक होते हैं । जैन धर्म के तीर्थंकर जितेन्द्रिय और ज्ञानवन् महापुरुष थे जिन्होंने जैन धर्म के प्रसार में योग दिया ।अरिष्टनेमी को भगवान कृष्ण का करीबी रिश्तेदार माना जाता है।

जैनियों का मानना ​​​​है कि उनका धर्म उन 24 तीर्थंकरों या महात्माओं की शिक्षाओं का परिणाम है पार्श्वनाथ सबसे पहले जैन तीर्थंकर हैं जिन्हें आम तौर पर एक ऐतिहासिक व्यक्ति के रूप में स्वीकार किया जाता है। तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ बनारस के युवराज थे और उन्होंने 872 – 772 B.C. पहले अपने धर्म का प्रचार किया होगा। तथा सम्भवतः ई 800 B.C अपने धर्म का उपदेश करते रहे होंगे ।पार्श्वनाथ के चार संयम थे अहिंसा , अपरिग्रह ( अपरिग्रह ), अस्तेय (चोरी न करना) और सत्य (झूठ बोलना)। वे अपने बाद एक सुगठित संघ छोड़ गये ।

जैन धर्म के 24 तीर्थंकर Jain Dharm ke 24 tirthankar

( 1 ) ऋषभदेव

( 2 ) अजितनाथ

 ( 3 ) सम्भवनाथ

( 4 ) अभिनंदन जी

 ( 5 ) सुमतिनाथ

( 6 ) पद्मप्रभु

( 7 ) सुपार्श्वनाथ

( 8 ) चन्द्रप्रभु

( 9 ) सुविधिनाथ

( 10 ) शीतलनाथ

 ( 11 ) श्रेयां

( 12 ) वासुपूज्य

( 13 ) विमलनाथ

( 14 ) अनन्तनाथ

( 15 ) धर्मनाथ

( 16 ) शान्तिनाथ

( 17 ) कुंथुनाथ

( 18 ) अरनाथ जी

( 19 ) मल्लिनाथ

 ( 20 ) मुनि सुव्रतनाथ

 ( 21 ) नमिनाथ

 ( 22 ) नेमिनाथ

( 23 ) पार्श्वनाथ

( 24 ) महावीर

महावीर जैन का सामान्य परिचय

  महावीर जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थङ्कर हैं । इनका जन्म 599 ई ० पू ० ‘ के लगभग वैशाली के अन्तर्गत कुण्डग्राम में हुआ था । इनके पिता का नाम सिद्धार्थ तथा माता का नाम त्रिशला था । त्रिशला वैशाली के लिच्छविवंशीय राजा चेटक की बहन थी । महावीर का बचपन का नाम वर्द्धमान था । इनका गोत्र कश्यप था तथा वर्ण ज्ञातृक था ।

महावीर का विवाह कुण्डिल्य गोत्र की कन्या ‘ यशोदा ‘ से हुआ था जैन ग्रन्थ आचारांग के अनुसार उनके एक पुत्री भी उत्पन्न हुई थी जिसका नाम अणोज्जा या प्रियदर्शना था । तीस वर्ष की अवस्था में माता – पिता के स्वर्गवास के उपरान्त वर्द्धमान ने अपने बड़े भाई नन्दिवर्धन से आज्ञा लेकर संन्यास धारण कर लिया ।

उन्होंने 12 वर्ष तक घोर तपस्या की । आचारांग सुत्र में वर्द्धमान की कठिन तपस्या उल्लेख इस प्रकार किया गया है, “ वे नंगे और गृह – विहीन होकर भ्रमण करने लगे । लोग उन्हें मारते और चिढ़ाया करते पर वे बिना किसी बात की परवाह किये अपनी साधनाओं में लीन रहे । लाढ़ में वहाँ के निवासियों ने उन पर कुत्ते छोड़े। उन्हें वे डण्डों से पीटते और उन पर लात बरसाते, परन्तु रणभूमि के सेनानायक की तरह यह सब कुछ सहन करते रहे

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 कैवल्य प्राप्ति – वर्द्धमान ने आरम्भ में कुम्भहार नामक ग्राम में एक वर्ष, एक मास तक वस्त्र धारण करके तपस्या की । तत्पश्चात् उन्होंने वस्त्रों को सुवर्ण – बालुका नदी में फेंक दिया । हाथ में भिक्षापात्र के साथ नंगे होकर विचरण करने लगा।

12 वर्ष की कठिन तपस्या में लीन वर्द्धमान के शरीर में जीवित कीट, सरीसृप आदि भी लपट जाते थे किन्तु उन्होंने अपनी तपस्या का परित्याग नहीं किया ।

जैन धर्म

तेरहवें वर्ष में उन्हें ऋजुपालिका नदी के किनारे शाल वृक्ष के नीचे कैवल्य ( ज्ञान ) प्राप्त हुआ । तभी से वे अर्हत् ‘ ( पूज्य ), ‘ जिन ‘ विजयी तथा निर्गन्थ ‘ बन्धनरहित ) तीर्थङ्कर और महावीर कहलाय धर्म -प्रचार तीस वर्षों तक वे अपने धर्म का उपदेश कौशल, मगध तथा सुदूर पूर्व में करते रहे और पावा ( पटना जिला ) में 72 वर्ष की अवस्था में उन्होंने शरीर त्याग दिया । जैन लोग इस घटना का समय ईसा से 527 वर्ष पूर्व बतलाते है

परंतु यह घटना ईसा से 468 वर्ष हुई थी

 जैन धर्म के सिद्धान्त 

 आत्मवाद में विश्वास – जैन धर्म आत्मवाद में विश्वास करता है । उसके अनुसार विश्व में दो आधारभूत तत्त्व हैं — जीव और अजीव

 जैन धर्म के मूल सिद्धान्त जीव का अर्थ है आत्मा । महावीर स्वामी का कहना था कि जीवन केवल मनुष्य, पशु या वनस्पति में ही नहीं, प्रत्युत विश्व के कण – कण में पाया  जाता है । संसार में अगणित जीव हैं और सब समान हैं ।

 जीव को निकालकर जो कुछ भी शेष अजीव ।

कर्मवाद में विश्वास – जैन विचारधारा के अनुसार आत्मा स्वभाव से पाँच समितियाँ निर्मल, सर्वद्रष्टा, ज्ञानसम्पन्न तथा आनन्दमय है किन्तु कर्मों के कारण वह अपना शुद्ध स्वरूप भूलकर संसार के चक्कर में जीवन – मरण के कष्ट उठाती है ।

 कर्म से मुक्ति तथा मोक्ष – जैन धर्म के मूल सिद्धान्तों में एक मुख्य सिद्धान्त कर्म से मुक्ति तथा मोक्ष की प्राप्ति है । मोक्ष एक ऐसी स्थिति है, जिसमें पहुँचकर आत्मा निष्क्रिय होकर अनन्तकाल तक परम आनन्द का उपभोग करती रहती है ।

 मोक्ष – प्राप्ति के लिए जैन धर्म गृहस्थ और भिक्षु दोनों के लिए पृथक् – पृथक् मार्ग की व्यवस्था करता है । सामान्य गृहस्थ के लिए मोक्ष – प्राप्ति के लिए पंच अणुव्रत की व्यवस्था की गयी है । पंच अणुव्रत – गृहस्थों के लिए मोक्ष प्राप्ति के जो पंच अणुव्रत बताये गये हैं वे निम्नलिखित हैं

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 ( i ) अहिंसा – अहिंसा अणुव्रत का अर्थ है मन, वचन, कर्म से किसी प्रकार की हिंसा न करना ।

( ii ) सत्य – सत्य अणुव्रत का अर्थ है सत्य भाषण । सत्य भाषण मधुर और सुन्दर होना चाहिए । अप्रिय, निन्दनीय,

( iii ) अस्तेय – अस्तेय अणुव्रत का अर्थ है बिना किसी की आज्ञा के किसी की वस्तु या धन नहीं लेना चाहिए । दूसरे की सम्पत्ति की चोरी नहीं करनी चाहिए ।

( iv ) अपरिग्रह – आवश्यकता से अधिक सांसारिक वस्तुओं का संग्रह नहीं करना चाहिए । आवश्यकतानुसार ही धनोपार्जन कर उसमें लिप्त नहीं होना चाहिए ।

( ४ ) ब्रह्मचर्य – मन, वचन, कर्म से पर – स्त्री का समागम न करना, परपुरुष का समागम न करना ब्रह्मचर्य अणुव्रत के अन्तर्गत आता है ।

 त्रिरत्न

जैन धर्म त्रिरत्न के पालन की शिक्षा देता है । ये त्रिरत्न है

सम्यक ज्ञान,

सम्यक् दर्शन,

सम्यक् आचरण ।

 सम्यक् ज्ञान का अर्थ है सम्पूर्ण और सच्चा ज्ञान जो तीर्थकरो के उपदेशों से प्राप्त होता है ।

सम्यक दर्शन का अर्थ है तीर्थङ्करों में पूरी श्रद्धा, उनमें विश्वास । किन्तु केवल ज्ञान और विश्वास से ही कार्य नहीं चलता, इसलिए सम्यक आचरण भी धर्म के दस लक्षण

जैन धर्म में धर्म के दस लक्षण बताये गये हैं । ये लक्षण इस प्रकार है …-

( 1) उत्तम क्षमा ( क्रोध पूर्ण दमन )

( ii ) उत्तम मादेव ( गर्व का अन्त करना )

( 4 ) उत्तम मार्जव ( कुटिलता के स्थान पर सरलता ग्रहण करना )

(5) उत्तम शोच ( आत्मा की शुद्धि )

 उत्तम सत्य

 ( vi ) उत्तम संयम

( vii ) उत्तम तप

 ( viii ) उत्तम आकिञ्चन्य ( आत्मा के आवश्यक होता है । सम्यक् आचरण का अर्थ होता है सदाचारमय आचरणा । तीन स्वाभाविक गुणों में विश्वास )

( ix ) उत्तम ब्रह्मचर्य

 ( x ) उत्तम त्याग पाँच समितियाँ -.- 5 समितियाँ निम्नलिखित हैं  ईर्ष्या समिति — ऐसे मार्ग से चलना जहाँ कीट – कीटाणुओं के पैर से कुचलने का भय न हो ।

 भाषा समिति – मधुर तथा प्रिय बोलना चाहिए । 3. एषणा समिति – भोजन द्वारा किसी भी प्रकार के जीव की हिंसा न हो ।

 आदान – क्षेपणा समिति – भिक्षु को किसी भी वस्तु के प्रयोग के पूर्व यह देख लेना चाहिए कि उसके द्वारा किसी प्रकार के कीट – पतंग की हिंसा न हो

 व्युत्सर्ग समिति – ऐसे ही स्थान पर मल – मूत्र का त्याग करना चाहिए जहाँ किसी भी प्रकार के कीट – कीटाणु की हिंसा न हो । तीन गुप्तियाँ – जैन धर्म के अनुसार 3 गुप्तियाँ – मनोगुप्ति, वचोगुप्ति और कायगुप्ति होती हैं । इनके पालन से कम को उत्पन्न करनेवाले आस्रवों से छुटकारा मिलता है । तप – तप दो प्रकार के होते हैं

 1. बाहा तप – इनकी संख्या 6 है- ( 1 ) उपवास ( ii ) भोजन से क्रमशः निवृत्ति ( iii ) भिक्षुचर्या ( iv ) रस परित्याग

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 ( v ) कठिन आसनों द्वारा शरीर को कष्ट देना ( vi ) इन्द्रियों को नियंत्रण में रखना । 2. आभ्यन्तर तप — 1 ) प्रायश्चित्त ( i ) विनय ( ii ) सेवा ( iv ) स्वाध्याय { v ) ध्यान और ( vi) शरीर से ध्यान हटाकर आसन में निश्चल रहना ।

अनेकान्तवाद

जैन धर्म में बौद्धिक अहिंसा को अनेकान्तवाद के नाम से जाना जाता है । इसका तात्पर्य यह है कि मन में भी किसी का अनिष्ट नहीं सोचना चाहिए । जैन धर्म के अनुसार संसार के विभिन्न मत और विचारधाराएँ न तो पूर्णतयः सत्य हैं और न ही पूर्णतया असत्य ।

एक ही वस्तु एक समय में है या नहीं है दोनों बातें सत्य हैं, जैसे …- ईश्वर है भी और नहीं भी है । वृक्ष हिलता भी है और स्थिर भी है ।

 सल्लेखना 

जैन धर्म में तपस्या का अत्यधिक महत्त्व है । नैतिक तत्त्वों का दमन शरीर को कष्ट देकर ही किया ज सकता है ।

महावीर ने स्वयं 12 वर्षों की घोर तपस्या की थी । ” जब पूर्ण वीतरागता का चरम उदय होता है तो शरीर के बन्धन से मुक्ति की प्रबल इच्छा हो उठती है. तब जैन निन्थ मुनि सल्लेखना ( स्वेच्छामृत्यु ) द्वारा शरीर – बन्धन को का देते हैं ।

जैन धर्म का विकास

  महावीर के अनुयायी प्रथम तो निम्रन्थ कहलाये, परन्तु बाद में अपने स्वामी जिन के नाम पर उसका नाम जैन पड़ा महावीर ने अपने प्रमुख शिष्य इन्द्रभूति को अपने अनुयाथियों का संचालक बनाया ।

इस प्रकार यह संचालक पद एक दूसरे को मिलता गया और ईसा से पूर्व चौथी शताब्दी के मध्य में भद्रबाहु अनुनियों के संचालक हुए ।

उनके  संचालन – काल में मगध में बहुत बड़ा अकाल पड़ा । अत: भद्रबाहु तथा उनके अनुयायियों को विवश होकर मैसूर जाना पड़ा ।

वहाँ कुछ समय तक रहने के पश्चात् वे मगध लौट आये । वहाँ आकर उन्होंने देखा कि यहाँ के जैन अनुनायियों ने महावीर स्वामी के उपदेश की अवहेलना करके वस्त्र पहनना प्रारम्भ कर दिया है।

इस प्रकार भेद होने इस मत में दो सम्प्रदाय हो गये — प्रथम दिगम्बर जो निर्वस्त्र रहना पसन्द करते हे तथा दूसरे दिगम्बर जो वस्त्र पसन्द करते थे ।

ईसी समय ईसा से 300 वर्ष पूर्व भद्रबाहु के उत्तराधिकारी स्थूलभद्र ने मगध की राजधानी पाटलिपुत्र में इसको संगृहील करने के लिए सभा करायी । इन उपदेशों का कुछ अंश खो चुका था अतः जितना अश शेष था उस लिपिबद्ध किया गया ।

दिगम्बरों ने इस सभा का बहिष्कार किया और इस बात की घोषणा की कि पाटलिपुत्र सभा द्वारा निशि असन अवैधानिक है क्योंकि धर्म के मौलिक सिद्धान्त पूर्णतया लुप्त हो चुके हैं ।

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